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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
जीव सांख्य दर्शन में पुरुष को ही जीव माना गया है वह अनेक तथा विभु अर्थात् सर्वव्यापक है ।सुख दुःख आदि सब प्रकृति के धर्म हैं। पुरुष अज्ञानता के कारण उन्हें अपना समझ कर दुखी होता है। योग दर्शन में जीव का स्वरूप सांख्यों के समान ही है।
वैशेषिक तथा नैयायिकों के अनुसार शरीर, इन्द्रिय आदि का अधिष्ठाता आत्मा ही जीव है। इस में १४ गुण हैं-संख्या परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और भावना नाम का संस्कार । इनके मत में भी जीव विभु तथा नाना है। मीमांसा दर्शन के अनुसार भी जीव विभु, नाना, कर्त्ता तथा भोक्ता है। वेदान्त के अनुसार अन्तःकरण से युक्त ब्रह्म हो जीव है।
बन्ध हेतु सांख्य और योग दर्शन के अनुसार जीव संसार में अविवेक के कारण बँधा हुआ है । वास्तव में प्रकृति पुरुष से सर्वथा भिन्न है । प्रकृति जड़ है और पुरुष चेतन । दोनों के सर्वथा भिन्न होने पर भी प्रकृति के कार्यों को अपने समझ कर जीय अपने को दुखी तथा संसार में फँसा हुआ पाता है। प्रकृति
और पुरुष का भेदज्ञान होते ही मोक्ष हो जाता है। इसलिए इन दोनों का अविवेक अर्थात् भेदज्ञान का न होना ही संसारबन्ध का कारण है। नैयायिक और वैशेषिक भी अज्ञान को ही बन्ध का कारण मानते हैं । मीमांसा दर्शन के अनुसार निषिद्ध कर्म बन्ध के कारण हैं। वेदान्त में अविद्या को बन्ध का कारण माना गया है।