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श्री सेठिया जैन ग्रन्थ माला
व्यक्ति ब्रह्मचर्य को नष्ट कर देता है उसका आत्मविकास विल्कुल रुक जाता है।
परिग्रह का स्वरूप 'मूळ परिग्रहः' । मृर्छ अर्थात् आसक्ति परिग्रह है। किसी भी वस्तु में चाहे वह छोटी, बड़ी, जड़, चेतन, बाह्य, आभ्यन्तर या किसी प्रकार की हो, अपनी हो या पराई हो उसमें आसक्ति रखना, उसमें बँध जाना या उसके पीछे पड़ कर अपने विवेक को खो बैठना परिग्रह है। धन, सम्पत्ति आदि वस्तुएँ परिग्रह अर्थात् मूर्छा का कारण होने से परिग्रह कह दी जाती हैं, किन्तु वास्तविक परिग्रह उन पर होने वाली मूर्छा है। मूर्छा न होने पर चक्रवर्ती सम्राट् भी अपरिग्रही कहा जा सकता है और मूळ होने पर एक भिखारी भी परिग्रही है।
साधु के लिए ऊपर लिखे पाँच महाव्रत मुख्य हैं। इनकी रक्षा के लिए पाँच समिति, तीन गुप्ति, नव बाड़ ब्रह्मचर्य, छोड़ने योग्य आहार के ४२ दोष, ५२ अनाचार, जीतने योग्य २२ परिषह आदि बताए गए हैं। इनका स्वरूप यथास्थान देखना चाहिए।
साधु के लिए आवश्यक बात 'निःशल्यो व्रती'। जिस में शल्य न हो उसे व्रती कहा जाता है। अहिंसा, सत्य आदि व्रत लेने मात्र से कोई सच्चा व्रती नहीं बन सकता । सच्चा त्यागी बनने के लिए छोटी से छोटी किन्तु सब से पहली शर्त है कि त्यागी को शल्य रहित होना चाहिए। संक्षेप में शल्य तीन हैं- (१) दम्भ अर्थात् ढोंग या ठगने की