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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
वृत्ति । (२) भोगों की लालसा । (३) सत्य पर दृढ़ श्रद्धा न रखना अथवा असत्य का आग्रह । ये तीनों मानसिक दोष हैं। वे जब तक रहते हैं तब तक मन और शरीर अशान्त रहते हैं। आत्मा भी तब तक स्वस्थ नहीं रह सकता । शल्यवाला व्यक्ति किसी प्रकार व्रत अङ्गीकार कर ले तो भी एकाग्र चित्त से उनका पालन नहीं कर सकता । जिस प्रकार शरीर में कांटा या कोई दूसरा तीक्ष्ण पदार्थ घुस जाने पर शरीर तथा मन अशान्त हो जाते हैं । आत्मा किसी भी कार्य में एकाग्र नहीं होने पाती । उसी प्रकार ऊपर कहे हुए मानसिक दोष भी आत्मा को व्रतपालन के लिए एकाग्र नहीं होने देते। इसी लिए व्रतों को अङ्गीकार करने से पहले इन्हें छोड़ देना जरूरी है ।
चारित्र के भेद
आत्मविकास के मार्ग पर चलने वाले सब लोग समान शक्ति वाले नहीं होते । कोई ऐसा दृढ़ होता है जो मन, वचन और काया से सब पापों को छोड़ कर एकमात्र आत्मविकास को अपना ध्येय बना लेता है । दूसरा सांसारिक इच्छाओं को एक दम रोकने का सामर्थ्य न होने से धीरे धीरे त्याग करता है । इसी तारतम्य के अनुसार चारित्र के दो भेद हो गए हैं- (१) सर्वविरतिचारित्र ( २ ) देशविरतिचारित्र । इन्हीं दोनों को अनगारधर्म और सागारधर्म या साधुधर्म और श्रावकधर्म भी कहा जाता है । साधु सदोष क्रियाओं का सम्पूर्ण रूप से त्याग करता है। पूर्ण होने से उसके व्रत महाव्रत कहे जाते हैं। पूर्ण त्याग की सामर्थ्य न होने पर भी त्याग की भावना होने
श्रावक शक्त्यनुसार मर्यादित त्याग करता है । साधु की
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