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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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पञ्चमहाव्रतधारी साधुओं का स्थान सब से ऊँचा है । ऊपर लिखी भावनाएँ मुख्य रूप से साधुओं को लक्ष्य करके कही गई हैं। अपने अपने त्याग के अनुरूप दूसरी भी बहुत सी भावनाएँ हो सकती हैं, जिनसे व्रतपालन में सहायता मिले । पाप की निवृत्ति के लिए नीचे लिखी भावनाएँ भी विशेष उपयोगी हैं
(१) हिंसा आदि पापों में ऐहिक तथा पारलौकिक अनिष्ट देखना । (२) अथवा हिंसा आदि दोषों में दुःख ही दुःख है, इस प्रकार बार बार चित्त में भावना करते रहना । (३) प्राणीमात्र में मैत्री, अधिक गुणों वाले को देख कर प्रमुदित होना, दुःखी को देख कर करुणा लाना और उजड्ड, कदाग्रही या अविनीत को देखकर मध्यस्थ भाव रखना । (४) संवेग और वैराग्य के लिए जगत् और शरीर के स्वभाव का चिन्तन करना ।
जिस बात का त्याग किया जाता है उस के दोषों का सम्यक ज्ञान होने से त्याग की रुचि उत्तरोत्तर बढ़ती है। बिना उस के त्याग में शिथिलता आजाती है। इसलिए अहिंसा आदि तों की स्थिरता के लिए हिंसा आदि से होने वाले दोषों को देखते रहना आवश्यक माना गया है। दोषदर्शन यहाँ दो प्रकार का बताया गया है - ऐहिक दोषदर्शन और पारलौकिक दोषदर्शन | हिंसा करने, झूठ बोलने आदि से मनुष्य को जो नुकसान इस लोक में उठाना पड़ता है, अशान्ति वगैरह जो आपत्तियाँ
घेरती हैं उन सब को देखना ऐहिक दोषदर्शन है। हिंसा आदि से जो नरकादि पारलौकिक अनिष्ट होता है उसे देखना पारलौकिक दोषदर्शन है । इन दोनों संस्कारों को आत्मा में दृढ़ करना भावना है।
इसी प्रकार हिंसा आदि त्याज्य बातों में दुःख ही दुःख