________________
श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
देखने का अभ्यास हो जावे तो वह त्याग विशेष स्थायी तथा दृढ़ होता जाता है । इसी लिए दूसरी भावना है, इन सब पाप कर्मों में दुःख ही दुःख देखना । जिस प्रकार दूसरे द्वारा दी गई पीड़ा से हमें दुःख होता है इसी प्रकार हिंसा आदि से दूसरों को भी दुःख होता है इस प्रकार समझना भी दूसरी भावना है। मैत्री, प्रमोद आदि चार भावनाएँ तो प्रत्येक सद्गुण सीखने के लिए आवश्यक हैं। हिंसा आदि व्रतों के लिए भी वे बहुत उपकारक हैं । उन्हें जीवन में उतारना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है । जो व्यक्ति इन्हें जीवन में उतार लेता है वह जगत्प्रिय बन जाता है । उस का कोई शत्रु नहीं रहता । इन चारों भावनाओं में प्रत्येक का विषय भिन्न भिन्न है। उन विषयों के अनुसार ही भावना होने से वास्तविक फल की प्राप्ति होती है । प्रत्येक का विषय संक्षेप से स्पष्ट किया जाता है
१८८
(१) मित्रता का अर्थ है आत्मा या आत्मीयता की बुद्धि । यह भावना प्राणिमात्र के प्रति होनी चाहिए अर्थात् प्रत्येक प्राणी को अपने सरीखा और अपना ही समझे । ऐसा समझने पर ही एक व्यक्ति संसार के सभी प्राणियों के प्रति अहिंसक तथा सत्यवादी बन सकता है । श्रात्मजन समझ लेने पर दूसरों को दुखी करने की भावना उसके हृदय में आ ही नहीं सकती । इसके विपरीत जिस प्रकार पुत्र को दुखी देख कर पिता दुखी हो उठता है उसी प्रकार वह भी दुखी प्राणी को देख कर दुखी हो उठेगा और उसका कष्ट दूर करने की कोशिश करेगा । यही भावना मनुष्य को विश्वबन्धुत्व का पाठ सिखाती है।
( २ ) अपने से बड़े को देख कर प्रायः साधारण व्यक्ति के दिल में जलन सी पैदा होती है। जब तक यह जलन रहती