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दो शब्द "श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह " का दूसरा भाग पाठकों के सामने रखते हुए मुझे पहले से भी अधिक हर्ष हो रहा है। पहले भाग को पाठकों ने खूब अपनाया। पुस्तक में दी गई कुछ सम्मतिया इसका प्रमाण हैं । मुनियों ने, विद्वानों ने तथा सर्व साधारण ने पुस्तक देखकर अपना हर्ष ही प्रकट किया है।
दूसरे भाग में ६ से लेकर १० तक के पाँच बोल देने का विचार था । साथ में शास्त्रीय गहन विषयों को स्पष्ट करने के लिए कुछ बोलों का विस्तार से लिखना भी आवश्यक मालूम पड़ा । ऐसा करने में छठे और सातवें, केवल दो बोलों का प्राकार प्रथम भाग जितना हो गया । सिरीज़ की सौन्दर्य रक्षा के लिए एक भाग को अधिक मोटा कर देना भी ठीकन जैचा । इसलिए दो बोलों का ही यह दूसरा भाग पाटकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
जैन दर्शन के सप्तभंगी, नय, द्रव्य आदि मुख्य सिद्धान्त तथा धार्मिक मुख्य मान्यताएं इसी भाग में अन्तर्हित हैं और वे भी पर्याप्त विस्तार के लाथ लिखी गई हैं। सात निस्व और कह दर्शनों का बोल भारतीय प्राचीन मान्यताओं का यथेष्ट दिग्दर्शक है। इसलिए यह भाग पाठकों को विशेष रुचिकर होगा, ऐसी पूर्ण प्राशा है।
पुस्तक का नाम ' श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह ' होने से इसमें प्रायः सारी बातें आगमों से ही ली गई हैं। कुछ ऐसी बातें जिनके विषय में किसी तरह का विवाद नहीं है, प्रकरण ग्रन्थों से या इधर उधर से भी उपयोगी जानकर खे ली गई हैं। किन्तु उन्हें देते समय प्रामाणिकता का पूरा ध्यान रक्खा गया है।
प्रमाण के लिए बोलों के नीचे मूल सूत्रों का ही नाम दिया है। मूल सूत्र में जहां नाम मात्र ही है वहां व्याख्या शास्त्रों के अनुकूल टीका नियुक्ति भाष्य चूर्णि आदि से लिखी गई हैं।
सूत्रों में प्रायः प्रागमोदय समिति' का संस्करण ही उद्धृत किया गया है। इसके सिवाय जो संस्करण यह। उद्धृत हैं उनके नाम भी दे दिये गये हैं।
प्रचार दृष्टि से दूसरे भाग का मूल्य भी लायत से बहुत कम रक्खा है।
शन का समुद्र अपार है। उसका यह सर्वज्ञ ही त्वया सकते हैं। पहला भाग प्रकाशित करने के बाद हमारा यह ख्याल था कि पुस्तक पाच भागों में सम्पूर्ण हो जायगी, किन्तु दूसरा भाग तैयार करते समय इतनी नई बातें मिली कि पुस्तक का