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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
स्थायी अंश के कारण प्रत्येक वस्तु ध्रुव (स्थिर) और परिणामी अंश के कारण उत्पादव्ययात्मक (अस्थिर) कही जाती है । इन दो अंशों में से किसी एक ही की तरफ ध्यान देने से वस्तु को एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य कहा जाता है। वस्तु का यथार्थ स्वरूप दोनों तरफ दृष्टि डालने पर ही निश्चित किया जा सकता है।
प्रश्न- 'बिना किसी परिवर्तन के वस्तु का सदा एक सरीखा रहना नित्यत्व है।' जो वस्तु नित्य है उसमें किसी तरह का परिवर्तन नहीं हो सकता । उसमें उत्पाद या व्यय भी नहीं हो सकते । इसलिए एक ही वस्तु में इन विरोधी धर्मों का कथन करना कैसे संगत हो सकता है ?
उत्तर- नित्य का अर्थ यह नहीं है कि जिस में किसी तरह का परिवर्तन न हो , किन्तु वस्तु का अपने भाव अर्थात् जाति से च्युत न होना ही उसकी नित्यता है। इसी प्रकार उत्पाद या विनाश का अर्थ नई वस्तु का उत्पन्न होना या विद्यमान का एक दम नाश हो जाना नहीं है। किन्तु नवीन पर्याय का उत्पन्न होना और प्राचीन पर्याय का नाश होना ही उत्पाद और विनाश है । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु द्रव्य या जाति की अपेक्षा नित्य है और पर्याय की अपेक्षा क्षणिक । वस्तु के इसी नित्यत्व अनित्यत्व आदि आपेक्षिक धर्मों को लेकर सप्तभङ्गी का अवतरण होता है। यदि वस्तु को एकान्त नित्य मान लिया जाय तो उसमें कोई कार्य नहीं हो सकता। यदि क्षणिक मान लिया जाय तो पूर्वापर पर्याय का प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता । इत्यादि कारणों से एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य दोनों पक्ष युक्ति के विपरीत हैं।