________________
श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
१७५
उसके बाद पानी के रंग, स्वाद, हलचल आदि अवस्थाओं पर दृष्टि जाना, उसकी विशेषताओं पर ध्यान जाना विशेष दृष्टि है । इसी को पर्यायार्थिक नय कहते हैं । इसी तरह सभी वस्तुओं पर घटाया जा सकता है । आत्मा के विषय में भी सामान्य और विशेष दोनों दृष्टियाँ कई प्रकार से हो सकती हैं। भूत, भविष्यत् और वर्तमान पर्यायों का ख्याल किए विना केवल सामान्य रूप से भी उसे सोचा जा सकता है और पर्यायों के भेद डाल कर भी । इस तरह सभी पदार्थों का विचार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों के अनुसार होता है।
विशेष भेदों का स्वरूप (१) जो विचार लौकिक रूढि और लौकिक संस्कार का अनुसरण करे उसे नैगम नय कहते हैं।
(२) जो विचार भिन्न भिन्न वस्तु या व्यक्तियों में रहे हुए किसी एक सामान्य तत्त्व के आधार पर सब में एकता बतावे उसे संग्रह नय कहते हैं।
(३) जो विचार संग्रह नय के अनुसार एक रूप से ग्रहण की हुई वस्तुओं में व्यवहारिक प्रयोजन के लिए भेद डाले उसे व्यवहार नय कहते हैं । इन तीनों नयों की मुख्य रूप से सामान्य दृष्टि रहती है। इसलिए ये द्रव्यार्थिक नय कहे जाते हैं।
(४) जो विचार भूत और भविष्यत् काल की उपेक्षा करके वर्तमान पर्याय मात्र को ग्रहण करे उसे ऋजुसूत्र नय कहते हैं।
(५) जो विचार शब्दप्रधान हो और लिङ्ग, कारक आदि शाब्दिक धर्मों के भेद से अर्थ में भेद माने उसे शब्द नय कहते हैं।
(६) जो विचार शब्द के रूढ अर्थ पर निर्भर न रह कर व्युत्पत्त्यर्थ के अनुसार समान अर्थ वाले शब्दों में भी भेद माने