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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
उसे समभिरूढ नय कहते हैं।
(७) जो विचार शब्दार्थ के अनुसार क्रिया होने पर ही उस वस्तु को तद्रूप स्वीकारे उसे एवम्भूत नय कहते हैं ।
देश, काल, और लोकस्वभाव की विविधता के कारण लोक रूढियाँ और उनसे होने वाले संस्कार अनेक प्रकार के होते हैं । इसलिए नैगम नय भी कई प्रकार का होता है और उसके दृष्टान्त भी विविध हैं। किसी कार्य का सङ्कल्प करके जाते हुए किसी व्यक्ति से पूछा जाय कि तुम कहाँ जारहे हो? उत्तर में वह कहता है कि मैं कुल्हाड़ा लेने जारहा हूँ । वास्तव में उत्तर देने वाला कुल्हाड़े का हाथा बनाने के लिए लकड़ी लेने जा रहा है । ऐसा होने पर भी वह ऊपर लिखा उत्तर देता है और सुनने वाला उसे ठीक समझ कर स्वीकार कर लेता है। यह एक लोकरूढि है। साधु होने पर किसी की जात पाँत नहीं रहती फिर भी गृहस्थ दशा में ब्राह्मण होने के कारण साधु को ब्राह्मण श्रमण कहा जाता है। भगवान् महावीर को हुए ढाई हजार वर्ष बीत गए। फिर भी प्रति वर्ष चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को उनका जन्मदिवस मनाया जाता है। युद्ध में जब भिन्न भिन्न देशों के मनुष्य लड़ते हैं तो कहा जाता है हिन्दुस्तान लड़ रहा है। चीन लड़ रहा है। इस प्रकार तरह तरह की लोकरूढियों के कारण जमे हुए संस्कारों से जो विचार पैदा होते हैं वे सब नैगम नय की श्रेणी में आजाते हैं।
जड़, चेतन रूप अनेक व्यक्तियों में सद्रूप सामान्य तत्त्व रहा हुआ है। उसी तत्त्व पर दृष्टि रख कर बाकी सब विशेषताओं की ओर उपेक्षा रखते हुए सभी वस्तुओं को, सारे विश्व को एक रूप समझना संग्रह नय है। इसी प्रकार घट पट आदि