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'श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
प्रमाण की गिनती में आने लायक सर्वांशी है या नहीं ? इस प्रकार की सूचना करना ही जैन दर्शन की नयवाद रूप विशेषता है। नय के भेद
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नय के संक्षेप में दो भेद हैं- द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । संसार में छोटी बड़ी सब वस्तुएँ एक दूसरे से सर्वथा भिन्न भी नहीं हैं और सर्वथा एक रूप भी नहीं हैं। समानता और भिन्नता दोनों अंश सभी में विद्यमान हैं । इसीलिए वस्तुमात्र को सामान्यविशेष- उभयात्मक कहा जाता है | मानवी बुद्धि भी कभी सामान्य की ओर झुकती है और कभी विशेष की ओर । जब वह सामान्यांशगामी होती है उस समय किया गया विचार द्रव्यार्थिक नय कहा जाता है और जब विशेषगामी हो उस समय किया गया विचार पर्यायार्थिक नय कहा जाता है । सारी सामान्य दृष्टियाँ और सारी विशेष दृष्टियाँ भी एक सरीखी नहीं होतीं उनमें भी फरक होता है। यह बताने के लिए इन दो दृष्टियों में भी अवान्तर भेद किए गए हैं । द्रव्यार्थिक के तीन और पर्यायार्थिक के चार इस प्रकार कुल सात भेद हैं। ये ही सात नय हैं । द्रव्यार्थिक नय पर्यायों का या पर्यायार्थिक द्रव्यों का खण्डन नहीं करता किन्तु अपनी दृष्टि को प्रधान रख कर दूसरी को गौण समझता है ।
सामान्य और विशेष दृष्टि को समझने के लिए नीचे एक उदाहरण दिया जाता है। कहीं पर बैठे बैठे सहसा समुद्र की
-दृष्टि गई। पहले पहल ध्यान पानी के रंग, स्वाद या समुद्र की लम्बाई, चौड़ाई, गहराई आदि की तरफ न जाकर सिर्फ पानी पर गया । इसी दृष्टि को सामान्य दृष्टि कहा जाता है । और इस पर विचार करने वाला नय द्रव्यार्थिक नय ।
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