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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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हैं और शुद्ध चैतन्य की दृष्टि से एक । इस प्रकार समन्वय करके नयवाद परस्पर विरोधी मालूम पड़ने वाले वाक्यों में एकवाक्यता सिद्ध कर देता है। इसी प्रकार आत्मा के विषय में नित्यत्व, अनित्यत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व आदि विरोध भी नयवाद द्वारा शान्त किए जा सकते हैं। ___सामान्य रूप से मनुष्य की ज्ञानवृत्ति अधूरी होती है और अस्मिता अभिनिवेश अर्थात् अहंकार या अपने को ठीक मानने की भावना बहुत अधिक होती है। इससे जब वह किसी विषय में किसी प्रकार का विचार करता है तो उसी विचार को अन्तिम सम्पूर्ण तथा सत्य मान लेता है । इस भावना से वह दूसरों के विचारों को समझने के धैर्य को खो बैठता है। अन्त में अपने अल्प तथा आंशिक ज्ञान को सम्पूर्ण मान लेता है । इस प्रकार की धारणाओं के कारण ही सत्य होने पर भी मान्यताओं में परस्पर झगड़ा खड़ा हो जाता है और पूर्ण तथा सत्यज्ञान का द्वार बन्द हो जाता है।
एक दर्शन आत्मा आदि के विषय में अपने माने हुए किसी पुरुष के एकदेशीय विचार को सम्पूर्ण सत्य मान लेता है। उस विषय में उसका विरोध करने वाले सत्य विचार को भी झूठा समझता है । इसी प्रकार दूसरा दर्शन पहले को और दोनों मिल कर तीसरे को झूठा समझते हैं। फल स्वरूप समता की जगह विषमता और विवाद खड़े हो जाते है अतः सत्य और पूर्णज्ञान का द्वार खोलने के लिए तथा विवाद दूर करने के लिए नयवाद की स्थापना की गई है और उसके द्वारा यह बताया गया है कि प्रत्येक विचारक अपने विचार को प्राप्तवाक्य कहने से पहले यह तो सोंचे कि उसका विचार