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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
और विधेय रूप में कहा जा सके उसे नय कहते हैं । उद्देश्य और विधेय के विभाग के बिना ही जिस में अविभक्त रूप से वस्तु का भाव हो उसे प्रमाण कहा जाता है । अर्थात् जो ज्ञान वस्तु के अनेक अंशों को जाने वह प्रमाण ज्ञान है और अपनी विवक्षा से किसी एक अंश को मुख्य मान कर व्यवहार करना नय है । नय और प्रमाण दोनों ज्ञान हैं, किन्तु वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म को ग्रहण करने वाला नय है और अनेक धर्मों वाली वस्तु का अनेक रूप से निश्चय करना प्रमाण है। जैसे दीप में नित्य धर्म भी रहता है और अनित्यत्व भी । यहाँ अनित्यत्व का निषेध न करते हुए अपेक्षावशात् दीपक को नित्य कहना नय है । प्रमाण की अपेक्षा नित्यत्व अनित्यत्व दोनोधर्मों वाला होने से इसे नित्यानित्य कहा जायगा।
ज्ञान के पाँच भेद हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । ये पाँचों ज्ञान दो विभागों में विभक्त हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष । पहले के दो परोक्ष हैं, शेष तीन प्रत्यक्ष हैं । जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा की स्वाभाविक योग्यता से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है। जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है, उसे परोक्ष कहते हैं । दूसरे दर्शनों में इन्द्रियजन्य ज्ञान को भी प्रत्यक्ष माना है । जैन दर्शन में इसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा जाता है । किन्तु वास्तव में वह परोक्ष ही है। पाँच ज्ञानों का स्वरूप प्रथम भाग के बोल नं. ३७५ में दे दिया गया है।
नय किसी विषय के सापेक्ष निरूपण को नय कहते हैं। किसी एक या अनेक वस्तुओं के विषय में अलग अलग मनुष्यों के