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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
ज्ञान अस्पष्ट हो किन्तु वह हमेशा सत्य को खोजने में लगा रहता है। अपने आग्रह को छोड़ कर वह वस्तु के यथार्थे स्वरूप को जानने का प्रयत्न करता है। अपने से अधिक जानने वाले यथार्थवादी पुरुष के पास जाकर अपने भ्रम को दूर कर लेता है । वह कभी अपनी बात के लिए जिद्द नहीं करता । आत्महित के लिए उपयोगी समझ कर सत्य को अपनाने के लिए वह सदा उत्सुक रहता है । वह अपने ज्ञान का उपयोग सांसारिक वासनाओं के पोषण में नहीं करता। वह उसे आध्यात्मिक विकास में लगाता है । सम्यक्त्व रहित जीव इससे विल्कुल उल्टा होता है । सामग्री की अधिकता के कारण उसे निश्चयात्मक या अधिक ज्ञान हो सकता है फिर भी वह अपने मत का दुराग्रह करता है। अपनी बात को सत्य मान कर किसी विशेषदर्शी के विचारों को तुच्छ मानता है । अपने ज्ञान का उपयोग आत्मा के विकास में न करते हुए वासनापूर्ति में करता है । सम्यक्त्वधारी का मुख्य उद्देश्य मोक्षप्राप्ति होता है । वह सांसारिक तथा आध्यात्मिक सभी शक्तियों को इसी ओर लगा देता है, जब कि मिथ्यात्वी जीव आध्यात्मिक शक्तियों को भी सांसारिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में लगाता है । इस प्रकार उद्देश्यों की भिन्नता के कारण ज्ञान सम्यक् और मिथ्या कहलाता है।
प्रमाण और नय पहले कहा जा चुका है कि प्रमाण और नय के द्वारा वस्तुस्वरूप को जानना सम्यग्ज्ञान है। यहाँ संक्षेप से दोनों का स्वरूप बताया जायगा।
जो ज्ञान शब्दों में उतारा जा सके, जिसमें वस्तु को उद्देश्य