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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
रहता है। उनकी पर्याय प्रति-क्षण बदलती रहती है । पर्यायों का बदलना ही संसार की अनित्यता है । यह परिवर्तन करना काल द्रव्य का काम है । उत्थान और पतन, उन्नति और अवनति, वृद्धि और हास काल द्रव्य के परिणाम हैं। जैन दर्शन में काल को एक बारह आरों वाले चक्र के समान बताया जाता है। घूमते समय चक्र में आधे आरे नीचे की ओर जाते हैं और आधे ऊपर की ओर । काल चक्र के छः आरों में क्रमिक उत्थान होता है और छ: में क्रमिक पतन | इन दो विभागों को क्रमशः उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कहा जाता है । उत्सर्पिणी काल में क्रमशः सभी वस्तुओं की उन्नति होती जाती है जब वह अपनी सीमा को पहुँच जाती है तब ह्रास होना प्रारम्भ होता है । उसी को अवसर्पिणी कहते हैं । उत्सर्पिणी का अर्थ है चढ़ाव और अवसर्पिणी का अर्थ है उतार । चढ़ाव और उतार संसार का अटल नियम है। जब संसार अपनी क्रमिक उन्नति और अवनति के एक घेरे को पूरा कर लेता है तब एक कालचक्र पूरा होता है। जैन दर्शन के अनुसार संसार के इस परिवर्तन में बीस कोडाकोडी सागरोपम का समय लगता है। सागरोपम का स्वरूप बोल नं० १०६, प्रथम भाग में है।
एक कालचक्र में ४८ तीर्थङ्कर होते हैं । २४ उत्सर्पिणी में और २४ अवसर्पिणी में । उत्सर्पिणी का पाँचवाँ और ar or तथा अवसर्पिणी का पहला और दूसरा आरा भोगभूमि माना जाता है । अर्थात् उस समय जनता वृक्षों से प्राप्त फलों पर निर्वाह करती है । सेना, लिखाई - पढ़ाई या खेती वगैरह किसी प्रकार उद्योग नहीं होता। लोग बहुत सरल होते हैं । धर्म अधर्म या पुण्य पाप से अनभिज्ञ होते हैं। उत्सर्पिणी
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