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भी जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १५९ त्रयी कहा जाता है। माध्व, रामानुज, निम्बार्क आदि आचार्यों ने अपने अपने मत के अनुसार इन ग्रन्थों की व्याख्याएँ लिखी हैं। कौनसी व्याख्या मूल ग्रन्थकार के अभिप्राय को विशेष स्पष्ट करती है यह अभी विवाद का विषय है । फिर भी शाडूरभाष्य के प्रति विद्वानों का बहुमान है। इसका कारण है शङ्कराचार्य स्वयं बहुत बड़े विचारक और स्पष्ट लिखने वाले थे। उनके बाद भी शाङ्करपरम्परा में मण्डनमिश्र, सुरेश्वराचार्य, वाचस्पतिमिश्र, श्रीहर्ष, मधुसूदन सरस्वती और गौड़ब्रह्मानन्द सरीखे बहुत बड़े विद्वान् हुए । शाङ्करशाखा के विद्वानों ने अपने स्वतन्त्र विचार के अनुसार किसी किसी बात में शंकराचार्य से मतभेद भी प्रगट किया है। यह मत अन्त तक विद्वानों और स्वतन्त्र विचारकों के हाथ में रहा है जब कि विशिष्टाद्वैत वगैरह भक्ति प्रधान मत भक्तों के हाथ में चले गए । यही कारण है कि शाङ्कर वेदान्त अन्त तक युक्तिवाद का पोषक रहा और दूसरे मत भावुकता में बह गए । प्रौढ युक्तिवादी होने पर भी शंकराचार्य वेद को प्रमाण मान कर चलते हैं। श्रुति और युक्ति का सामञ्जस्य ही इस मत के विशेष प्रचार का कारण है। भक्ति सम्प्रदाय में आगे जाकर रूप गोस्वामी, चैतन्यमहाप्रभु आदि बड़े बड़े भक्त हुए हैं। ___ मत मतान्तरों की विपुलता और युक्ति तथा श्रुति की प्रौढ़ता के कारण सभी वैदिक दर्शनों में वेदान्त का ऊंचा स्थान है।
जैन दर्शन अरिहन्त या. जिन के अनुयायी जैन कहे जाते हैं। जिसने आत्मा के शत्रुओं को मार डाला है अथवा जीत लिया है उसे