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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
और इन्द्रियों का बना होता है। जड़ होने पर भी अदृश्य रहता है और पुनर्जन्म में आत्मा के साथ जाकर कर्म फल भोगने में सहायक होता है। स्थूल शरीर में मुख्य प्राण के अलावा प्राण, अपान, व्यान, समान और उदान पाण भी हैं पर यह सब व्यवहार बुद्धि से है । यह सब माया का रूप है, अविद्या का परिणाम है, अविद्या या माया जो स्वयं मिथ्या है, मिथ्यात्व जो स्वयं कुछ नहीं है । एक ब्रह्म है, अद्वितीय है, बस और कुछ नहीं है।
वेदान्त इतना ऊँचा तत्वज्ञान है कि साधारण आत्माओं की पहुँच के परे है | अद्वितीय निर्गण ब्रह्म का समझना कठिन है, उसकी भक्ति करना और भी कठिन है अथवा यों कहिए कि विशुद्ध वेदान्त में भक्ति के लिए स्थान नहीं है , भक्ति की आवश्यकता ही नहीं है, ज्ञान विद्या ही एकमात्र उपयोगी साधन है । पर केवल ज्ञानवाद मानवी प्रकृति को सन्तोष नहीं देता , मनुष्य का हृदय भक्ति के लिए आतुर है । अतएव कुछ तत्त्वज्ञानियों ने वेदान्त के क्षेत्र में एक सिद्धान्त निकाला जो मुख्य वेदान्त सिद्धान्तों को स्वीकार करते हुए भी ब्रह्म को सगुण मानता है और भक्ति के लिए अवकाश निकालता है। अनुमान है कि वेदान्त में यह परिवर्तन भागवत धर्म, महायान बौद्ध धर्म या साधारण ब्राह्मण धर्म के प्रभाव से हुआ, वेदान्त की इस शाखा को जमाने वाले बहुत से तत्त्वज्ञानी थे जैसे बोधायन, हंक, द्रमिड़ या द्रविड़, गुहदेव, कपर्दिन , भरुचि । इनके समय का पता ठीक ठीक नहीं लगता पर बारहवीं ई० सदी में रामानुज ने इनका उल्लेख किया है । बोधायन और द्रविड़ शङ्कर से पहिले के मालूम होते हैं । स्वयं रामानुज ने