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भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला
है जो ब्रह्म को जानता है वह ब्रह्म है ।ब्रह्म को छोड़ कर कोई चीज नहीं हैं। कुछ भी पाने, जानने या भोगने योग्य नहीं है । तत्त्वमसि में तत् ब्रह्म है त्वं आत्मा है। वास्तव में दोनों एक हैं । वेदान्ती मानते हैं कि यह सिद्धान्त वेदों में है । वेदों के दो भाग हैं- कर्मकाण्ड और ज्ञान काण्ड । ज्ञान काण्ड विशेष कर उपनिषद् हैं। उपनिषदों में अद्वितीय ब्रह्म का उपदेश है । वेद को प्रमाण मानते हुए भी शंकराचार्य ने कहा है कि जिसने विद्या प्राप्त करली है उसने मोक्ष प्राप्त करली । वह ब्रह्म होगया, उसे वेद की कोई आवश्यकता नहीं है । जैसे बाढ़ से लबालब भरे देश में छोटे तालाब का कोई महत्त्व नहीं है वैसे ही विद्या प्राप्त किए हुए आदमी के लिए वेद का कोई महत्त्व नहीं है।
विशुद्ध वेदान्त के अनुसार ब्रह्म ही ब्रह्म है, पर व्यवहार दृष्टि से वेदान्ती जगत् का अस्तित्व मानने को तैयार हैं। शंकर ने बौद्ध शून्यवाद या विद्यामात्र का खण्डन करते हुए साफ साफ स्वीकार किया है कि व्यवहार के लिए सभी वस्तुओं का अस्तित्व और उनकी भिन्नता माननी पड़ेगी। इसी तरह यद्यपि ब्रह्म वास्तव में निर्गुण ही है, व्यवहार में उसे सगुण मान सकते हैं। इस तरह ब्रह्म में शक्ति मानी गई है और शक्ति से सृष्टि की उत्पत्ति मानी गई है। ब्रह्म से जीवात्मा प्रकट होता है । वह अविद्या के कारण कर्म करता है, कर्म के अनुसार जीवन, मरण, सुख, दुःख होता है, अविद्या दूर होते ही फिर शुद्ध रूप हो कर ब्रह्म में मिल जाता है। जब तक जीव संसार में रहता है तब तक स्थूल शरीर के अलावा एक सूक्ष्म शरीर भी रहता है। जब स्थूल शरीर पंचतत्त्व में मिल जाता है तब भी सूक्ष्म शरीर जीव के साथ रहता है । मुख्य प्राण मन