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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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जगत् में बहुत सी चीजें कैसे दिखाई पड़ती हैं ? वास्तव में एक ही चीज है पर अविद्या के कारण भ्रम हो जाता है कि बहुत सी चीजें हैं । अविद्या क्या है ? अविद्या व्यक्तिगत अज्ञान है, मानवी स्वभाव में ऐसी मिली हुई है कि बड़ी कठिनता से दूर होती है। अविद्या कोई अलग चीज नहीं है। वही माया है, मिथ्या है। यदि अविद्या या माया को पृथक् पदार्थ माना जाय तो ब्रह्म की अद्वितीयता नष्ट हो जायगी और जगत् में एक के बजाय दो चीजें हो जायँगी । साथ में अविद्या को यदि स्वतन्त्र वस्तु माना जाय तो इसका नाश न हो सकेगा । इसलिए अविद्या भी मिथ्या है, अस्थायी है
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प्रत्येक व्यक्ति या प्रत्येक आत्मा ब्रह्म का ही अंश है, ब्रह्म से अलग नहीं है । जो कुछ हम देखते हैं या और किसी तरह
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- का अनुभव करते हैं वह भी ब्रह्म का अंश है पर वह हमें - विद्या के कारण ठीक ठीक अनुभव नहीं होता । जैसे कोई दूर से रेगिस्तान को देख कर पानी समझे या पानी में परछाई देख कर समझे कि चन्द्रमा, तारे बादल आदि पानी के भीतर हैं। और पानी के भीतर घूमते हैं, उसी तरह हम साधारण वस्तुओं को ब्रह्म न मान कर मकान, पेड़, शरीर या जानवर इत्यादि मानते हैं। ज्यों ही हमें ज्ञान होगा, विद्या प्राप्त होगी अथवा यों कहिए कि ज्यों ही हमारा शुद्ध ब्रह्मरूप प्रकट होगा त्यों ही हमें सब कुछ ब्रह्मरूप ही मालूम होगा। इस अवस्था को पहुंचते ही हमारे दुःख दर्द की माया मिट जायगी, सुख ही सुख हो जायगा, हम ब्रह्म में मिल जाएँगे अर्थात् अपने असली स्वरूप को पा जाएँगे । आत्मा ब्रह्म है-- तुम ही ब्रह्म हो - तत्त्वमसि । तात्पर्य यह है कि ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है, आत्मा ब्रह्म