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श्री सेठिया जैन ग्रन्थ माला ‘जोर दिया है कि योग का सच्चा उद्देश्य कैवल्य या मोक्ष है।
पूर्व मीमांसा पूर्व मीमांसा का विषय यज्ञ और कर्मकाण्ड वेदों के बराबर पुराना है पर इसकी नियमानुसार व्यवस्था जैमिनि ने ई० पू० चौथी तीसरी सदी में मीमांसा मूत्र में की थी। इस मूत्र पर प्रधान टीका कुमारिल भट्ट ने श्लोकवार्तिक, तन्त्रवार्तिक और टुप्टीका ७ वीं ई० सदी में की। कुमारिल के आधार पर मण्डनमिश्र ने विधिविवेक और मीमांसानक्रमण ग्रन्थ रचे। इनकी अन्य टीकाएँ अब तक होती रही हैं। कुमारिल ने शबर के भाष्य का अनेक स्थानों पर खण्डन किया है पर उसके शिष्य प्रभाकर ने अपनी वृहती टीका में शबर को ही अधिक माना है। . वेद के दो भाग हैं- पूर्वभाग अर्थात् कर्मकाण्ड और उत्तर भाग अर्थात् ज्ञानकाण्ड । दूसरे भाग में ज्ञान की मीमांसा उत्तरमीमांसा या वेदान्त है । पहिले भाग की मीमांसा पूर्वमीमांसा कहलाती है । विषय का प्रारम्भ करते हुए जैमिनि कहते हैं- 'अथातो धर्मजिज्ञासा' अर्थात् अब धर्म जानने की अभिलाषा । अभिप्राय है कि पूर्व मीमांसा धर्म की विवेचना करती है । यह धर्म मन्त्रों और ब्राह्मणों का है । मन्त्रों का महात्म्य अपूर्व है। ब्राह्मणों में विधि और अर्थवाद हैं। विधियाँ कई तरह की हैं- उत्पत्तिविधि जिनसे सामान्य विधान होता है । विनियोगविधि जिनमें यज्ञ की विधि बताई हैं। प्रयोग विधि जिन में यज्ञों का क्रम है। अधिकारविधि जो यह बताती है कि कौन व्यक्ति किस यज्ञ के करने का अधिकारी है। इनके साथ साथ बहुत से निषेध भी हैं । इस सम्बन्ध में