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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
हैं। योग की पराकाष्ठा होने पर आत्मा को कैवल्य प्राप्त होता है- अर्थात् जगत् के जञ्जाल से हटकर आत्मा आप में ही लीन हो जाता है। यह न समझना चाहिए कि योग मत में कैवल्य होने पर आत्मा परमेश्वर में मिल जाता है। ऐसा कथन योगसूत्रों में कहीं नहीं है और न विज्ञानभिक्षु का योगाचारसंग्रह ही इस धारणा का समर्थन करता है । यह अवश्य माना है कि यदि साधनों से पूरी सिद्धि न हो तो परमेश्वर की कृपा कैवल्य और मोच तक पहुँचने में सहायता करती है। कैवल्य का यह विषय चौथे पाद में है। योग के अभ्यास बहुत से हैं जिनसे स्थिति में अर्थात् वृत्तियों के निरोध में और चित्त की एकाग्रता में सहायता मिलती है। अभ्यास या प्रयत्न बार बार करना चाहिए। वृत्तियों का निरोध होने पर वैराग्य भी हो जाता है जिसमें दृष्ट और आनुश्रविक पदार्थों की कोई अभिलाषा नहीं रहती । समाधि के उपायों में भिन्न भिन्न प्रकार के प्राणायामों का बहुत ऊँचा स्थान है । इस सम्बन्ध में हठ या क्रियायोग का भी विस्तृत वर्णन किया है जिससे आत्मा को शान्ति और प्रकाश की प्राप्ति होती है । योगाङ्गों में योग के आठ साधन हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि । आसन बहुत से हैं जैसे पद्मासन, वीरासन, भद्रासन और स्वस्तिकासन इत्यादि । योगसाधन से विभूतियाँ प्राप्त करके मनुष्य सब कुछ देख सकता है, सब कुछ जान सकता है, भूख प्यास जीत सकता है, दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकता है, आकाश में गमन कर सकता है, सब तत्त्वों पर विजय कर सकता है और जैसे चाहे उनका प्रयोग कर सकता है । पर पतञ्जलि तथा अन्य लेखकों ने