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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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जैमिनि ने नामधेय अर्थात् यज्ञ के अग्निहोत्र, उद्भिद् आदि नामों पर भी बहुत जोर दिया है । ब्राह्मणों के अर्थवादों में अर्थ समझाए गये हैं।
यज्ञों का विधान बहुत से मंत्रों में, ब्राह्मण ग्रन्थों में और स्मृतियों में है, कहीं कहीं बहुत से क्रम और नियम बताए हैं। कहीं थोड़े और कहीं कुछ नहीं बताए हैं । बहुत सी जगह कुछ पारस्परिक विरोध दृष्टिगोचर होता है । बहुत स्थानों पर संशय होता है कि यहाँ क्या करना चाहिए ? किस समय और किस तरह करना चाहिए ? इन गुत्थियों को सुलझाना पूर्वमीमांसा का काम है। मीमांसकों ने पाँच तरह के प्रमाण माने हैंप्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति ( एक वस्तु के आधार पर दूसरी वस्तु के होने या न होने का निश्चय करना) ओर शब्द । कुमारिल भट्ट ने एक छठा प्रमाण अभाव भी माना है जो वास्तव में अनुमान का ही एक भेद है । पाँच या छः प्रमाण मानते हुए भी मीमांसक प्रायः एक शब्द प्रमाण का ही प्रयोग करते हैं । शब्द अर्थात् ईश्वर वाक्य या ऋषिवाक्य के आधार पर ही वे यज्ञविधान की गुत्थियाँ सुलझाने की चेष्टा करते हैं । अतएव उन्होंने बहुत से नियम बनाए हैं कि श्रुति का अर्थ कैसे लगाना चाहिए ? यदि श्रुति और स्मृति में विरोध मालूम हो तो स्मृति का अर्थ कैसे लगाना चाहिए ? यदि दो स्मृतियों में विरोध हो तो श्रुति के अनुसार कौन सा अर्थ . ग्राह्य है ? यदि उस विषय में श्रुति में कुछ नहीं है तो क्या . करना चाहिए ? यदि स्मृति में कोई विधान है पर श्रुति में उस विषय पर कुछ नहीं है तो कहाँ यह मानना चाहिए कि इस विषय की श्रुति का लोप होगया है ? यह सारी मीमांसा माधव