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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह हैं। इनका आहार सिर्फ पाँच ग्रास होता है। ये बारह अक्षरों का जाप करते हैं। प्रणाम करते समय भक्त लोग 'ॐ नमो नारायणाय' कहते हैं और उत्तर में साधु लोग 'नारायणाय नमः' कहते हैं । मुख निःश्वास से जीवों की रक्षा करने के लिये ये लोग काष्ठ की मुखवस्त्रिका रखते हैं। जल जीवों की दया के लिए ये लोग गलना ( छन्ना ) रखते हैं । सांख्य लोग निरीश्वरवादी और ईश्वरवादी भी होते हैं ।
योग दर्शन योग का प्रथम रूप वेदों में मिलता है उपनिषदों में बार बार उसका उल्लेख किया गया है, बौद्ध और जैन धर्मों ने भी योग को स्वीकार किया है, बुद्ध और महावीर ने योग किया था, गीता में कृष्ण ने योग का उपदेश दिया है और पद्धति का निर्देश किया है। योग की पूरी पूरी व्यवस्था ई. सन् से एक दो सदी पहिले पतञ्जलि ने योगसूत्र में की जिस पर व्यास ने चौथी ई० सदी में भाष्य नाम की बड़ी टीका रची। उस पर नवीं सदी में वाचस्पति ने तत्त्व वैशारदी टीका लिखी है । योग पर छोटे मोटे ग्रन्थ बहुत बने हैं और अब तक वन रहे हैं । भगतद्गीता में योग की परिभाषा समत्व से की है। योग का वास्तविक अर्थ यही है कि आत्मा को समत्व प्राप्त हो । बहुत से लेखकों ने योग का अर्थ संयोग अर्थात परमात्मा में आत्मा का समा जाना माना है पर न तो गीता से
और न पतञ्जलि के सूत्रों से इस मत का समर्थन होता है। योगसूत्र के भाष्य में भोजदेव ने तो यहाँ तक कहा है कि योग वियोग है पुरुष और प्रकृति में विवेक का वियोग है। इस तरह