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भी जैन सिद्धान्त पोल संग्रह
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ओर से विषमता अर्थात किसी एक गुण की प्रधानता होने पर प्रकृति में संचलन होता है। इस तरह जगत् का आरम्भ होता है और इसके विपरीत क्रम से अन्त होता है । इस क्रम को संकर तथा प्रतिसंकर कहते हैं । संकर का क्रम इस तरह हैजब अव्यक्त का पुरुष से सम्बन्ध होता है तब बुद्धि प्रगट होती है, बुद्धि से अहंकार प्रगट होता है जो तीन तरह का है, वैकारिक अर्थात् सत्त्व से प्रभावित, तैजस अर्थात् रज से प्रभावित जो बुद्धि इन्द्रियों को पैदा करता है और तामस जो भूतों को पैदा करता है । भूतों सेतन्मात्राएँ उत्पन्न होती हैं और तन्मात्राओं से भौतिक तत्त्व । इस प्रकार संकर का विकास चलता है । इससे उल्टा क्रम प्रतिसंकर का है जिसका अन्त प्रलय है। भौतिक तत्त्व तन्मात्राओं में भी विलीन हो जाते हैं, तन्मात्रामाएँ अहंकार में, अहंकार बुद्धि में और बुद्धि अव्यक्त में । अव्यक्त का नाश नहीं हो सकता । उसका विकास और किसी चीज से नहीं हुआ है । प्रतिसंकर पूरा होने पर पुरुष
और अव्यक्त रह जाते हैं। पुरुष अविवेक के कारण प्रकृति से सम्बन्ध करता है, विवेक होने पर सम्बन्ध टूट जाता है। सांख्य का यह प्रकृति पुरुष-विवेक वेदान्त के आत्मविवेक से मिलता जुलता है किन्तु पुरुष का यह अविवेक कैसे पैदा होता है कि वह अपने को (आत्मा को) इन्द्रिय, मन या बुद्धि समझ लेता है ? पुरुष स्वयं काम नहीं कर सकता तो त्रैगुण्य कहाँ से आ जाता है? बुद्धि कहाँ से पैदा हो जाती है ? इस प्रश्न का उत्तर सांख्य में नहीं मिलता । अन्य दर्शनों की तरह यहाँ भी यह सम्बन्ध अनादि मान कर छोड़ दिया जाता है। प्रकृति और पुरुष का अविवेक ही सब दःखों की जड है। इसीसे जन्म मरण होता