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श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला
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हूँ, मैं देखता हूँ, मैं भोग करता हूँ” इत्यादि धारणा उत्पन्न होती. है । सांख्यसिद्धान्त में अहंकार प्रकृति से बुद्धि द्वारा उत्पन्न होता है । इससे अहम् का भाव निकलता है । अहंकार को तेजस, भूतादि, सानुमान और निरनुमान भी कहते हैं । अहंकार से पाँचों तन्मात्र निकलते हैं जिन्हें अविशेष, महाभूत, प्रकृति, भोग्य, अणु, शान्त, अघोर और अमूढ भी कहते हैं।
पुरुष और इन आठ प्रकृतियों को मिलाने से भी जगत् के व्यापार स्पष्ट नहीं होते । पुरुष और प्रकृति के निकटतर सम्बन्धों के द्वार और मार्ग बताने की आवश्यकता है और प्रकृति का भी सरल ग्राह्य रूप बताने की आवश्यकता है । इसलिए सोलह विकारों की कल्पना की है अर्थात् पाँच बुद्धि इन्द्रिय, पाँच कर्म इन्द्रिय, मन और पाँच महाभूत । पाँच बुद्धि इन्द्रिय हैं- - कान, आँख, नाक, जीभ और त्वचा । जो अपने अपने उपयुक्त पदार्थों का ग्रहण करती हैं। पाँच कर्म इन्द्रिय हैं— वाक्, हाथ, पैर, जननेन्द्रिय और मलद्वार । मन अनुभव करता है । पाँच महाभूत हैं- पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश । भूतों को भूतविशेष विकार, विग्रह, शान्त, घोर, मूढ़, आकृति और तनु भी कह सकते हैं । पुरुष, आठ प्रकृति और सोलह विकार मिलाकर पच्चीस तत्त्व कहलाते हैं ।
कार के कारण पुरुष अपने को कर्त्ता मानता है, पर वास्तव में पुरुष कर्त्ता नहीं है । यदि पुरुष स्वयं ही कर्त्ता होता तो सदा अच्छे ही कर्म करता । बात यह है कि कर्म तीन गुणों के कारण होते हैं- सत्त्व, रज और तम । यह केवल साधारण गुण नहीं है किन्तु प्रकृति के आभ्यन्तरिक भाग हैं तीनों गुणों में सामञ्जस्य होने पर सृष्टि नहीं होती । किसी
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