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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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का प्रभाव पड़ा है।
सांख्य दर्शन अनीश्वरवादी है। संसार का कर्ता हर्ता किसी को नहीं मानता । सारा जगत् और जगत् की सारी वस्तुएँ प्रकृति और पुरुष अर्थात् आत्मा और उनके संयोग प्रतिसंयोग से उत्पन्न हुई हैं। पुरुष एक नहीं है जैसा कि वेदान्ती मानते हैं किन्तु बहुत से हैं। सब को अलग अलग सुख दुःख होता है जिससे प्रगट है कि अनुभव करने वाले अलग अलग हैं। पुरुष जिसे आत्मा, पुमान् , पुँगुणजन्तुगीवः, नर, कवि, ब्रह्म, अक्षर, प्राण, यः, कः और सत् भी कह सकते हैं, अनादि है, अनन्त है और निर्गुण है । पदार्थों को पुरुष उत्पन्न नहीं करता, प्रकृति उत्पन्न करती है । पुरुष के सिवाय जो कुछ है प्रकृति है। प्रकृति के आठ प्रकार हैं- अव्यक्त, बुद्धि, अहंकार, तथा शब्द, स्पर्श, वर्ण, रस और गंध की तन्मात्राएँ । अव्यक्त जिसे प्रधान ब्रह्म, पुर, ध्रुव, प्रधान, क, अक्षर, क्षेत्र, तमस् और प्रसूत भी कह सकते हैं, अनादि और अनन्त है। यह प्रकृति का अविकसित तत्त्व है, इसमें न रूप है, न गंध है, न रस है, न यह देखा जा सकता है, और न किसी इन्द्रिय से ग्रहण किया जा सकता है। प्रकृति का दूसरा प्रकार है बुद्धि या अध्यवसाय । यहाँ बुद्धि शब्द का प्रयोग विशेष अर्थ में किया गया है । बुद्धि एक महत् है और पुरुष पर प्रभाव डालती है। बुद्धि के आठ रूप हैं- चार सात्विक और चार तामसिक । सात्विक रूप हैं-धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य । इनके उल्टे चार तामसिक रूप हैं। तथा बुद्धि को मनस्,मति, महत्, ब्रह्म, ख्याति, प्रज्ञा, श्रुति, धृति, प्रज्ञानसन्तति, स्मृति और धी भी कहा है।
अहंकार- अहंकार या अभिमान वह है जिससे "मैं सुनता