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श्रो सेठिया जैन ग्रन्थमाला
जाति है सत्ता जिसमें सब कुछ अन्तर्हित है।
पाँचवाँ पदार्थ विशेष सामान्य से उलटा है अर्थात् एक. जाति की चीजों को विशेषताएँ बताकर एक दूसरे से अलग करता है। विशेष की व्याख्या प्रशस्तपाद ने की है। __ छठा पदार्थ समवाय है नित्यसम्बन्ध । यह द्रव्य में ही रहता है और कभी नष्ट नहीं होता । वैशेषिक मत का दूसरा नाम पाशुपत है। इस मत के साधनों के लिङ्ग.वेष और देव
आदि का स्वरूप नैयायिकों की तरह ही है । उलूक रूपधारी शिव ने कणाद ऋषि के आगे यह मत कहा था इसलिए यह औलूक्य मत भी कहा जाता है । कणाद के नाम से यह मत काणाद भी कहा जाता है।
सांख्य दर्शन सांख्य के बहुतेरे सिद्धान्त उपनिषदों में और यत्र तत्र महाभारत में भी मिलते हैं। इसके प्रवर्तक अथवा यों कहिये व्यवस्थापक कपिल, ब्रह्मा, विष्णु या अग्नि के अवतार माने जाते हैं । वे ईसा पूर्व ६-७ सदी में हुए होंगे। सांख्य दर्शन का पहिला प्राप्य ग्रन्थ ईश्वरकृष्णकृत 'सांख्यकारिका' तीसरी ई० सदी की रचना है। ८ वीं ई० सदी के लगभग गौड़पाद ने कारिका पर प्रधान टीका लिखी जिस पर फिर नारायण ने सांख्यचन्द्रिका लिखी । नवीं ई० सदी के लगभग वाचस्पति मिश्र ने सांख्यतत्त्वकौमुदी लिखी। अन्य हिन्दूदार्शनिकों की तरह सांख्य दार्शनिक भी बड़े निर्भय और स्वतन्त्र विचारक होते हैं, अपनी विचार पद्धति या परम्परा के परिणामों से नहीं झिझकते । अन्य दर्शनों की तरह उन पर भी दूसरे दर्शनों