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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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तरह के द्रव्यों में पाए जाते हैं। संयोग, विभाग और पृथकत्व सदा अनेक द्रव्यों में ही हो सकते हैं । रूप, रस, गन्ध स्पर्श, स्नेह, द्रवत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म
और संस्कार ये विशेष या वैशेषिक गुण हैं अर्थात् ये एक चीज का दूसरी चीज से भेद करते हैं। गुरुत्व, धर्म, अधर्म
और संस्कार का ज्ञान अनमान से होता है इन्द्रियों से नहीं। कुछ गुणों का ज्ञान केवल एक इन्द्रिय से होता है, कुछ का अनेक इन्द्रियों से हो सकता है। वैशेषिक ग्रन्यों में प्रत्येक गुण की व्याख्या विस्तार से की है जिससे इस दर्शन में अनेक भौतिक शास्त्र तथा मानस शास्त्रों के अंश आगए हैं। अदृष्ट अर्थात् धर्म और अधर्म की व्याख्या करते समय बहुत सा आध्यात्मिक ज्ञान भी कहा गया है।
तीसरा पदार्थ कर्म क्षणिक है, गुणहीन है और पाँच तरह का है (१) उत्क्षेपण-ऊपर जाना । (२) अपक्षेपण-नीचे जाना। (३) आकुश्चन-संकुचित होना।(४) प्रसारण-फैलना (५) गमनचलना । प्रत्येक प्रकार का कर्म तीन वरह का हो सकता है (१) सत्प्रत्यय जो ज्ञानपूर्वक किया जाय (२) असत्प्रत्यय जो अज्ञान से किया जाय और (३) अप्रत्यय चेतनहीन वस्तुओं का कर्म । कर्म मूर्त वस्तुओं में ही होता है। अमूर्त आकाश, काल, दिक और आत्मा में नहीं। ___ चौथा पदार्थ सामान्य जाति है जो अनेक पदार्थों में एकत्व का बोध कराती है , जैसे अनेक मनुष्यों का एक सामान्य गुण हुआ मनुष्यत्व । जाति द्रव्य, गुण और कर्म में ही हो सकती है। यह दो तरह की होती है पर और अपर अर्थात् बड़ी और छोटी जैसे मनुष्यत्व और ब्राह्मणत्व । सब से बड़ी