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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
अनुमानगम्य है। आठवाँ द्रव्य आत्मा अनमानगम्य है, और अमूर्त है, ज्ञान का अधिकरण है, जैसा कि कणादरहस्य में शंकरमिश्र ने कहा है कि जीवात्मा अल्पज्ञ है, क्षेत्रज्ञ है अर्थात् केवल शरीर में होने वाले ज्ञान को जानता है । परमात्मा सर्व है। अनुमान और वेद से सिद्ध होता है कि परमात्मा ने संसार की रचना की है। बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, संस्कार, संख्या,परिमाण, पृथकत्व, संयोग और विभाग ये जीवात्मा के गुण हैं। नवाँ द्रव्य अन्तःकरण (भीतरी इन्द्रिय) है जिसका इन्द्रियों के साथ संयोग होना ज्ञान के लिए आवश्यक है। ___ दूसरा पदार्थ गुण वह चीज है जो द्रव्य में रहता है जिसका अपना कोई गुण नहीं है, जो संयोग या विभाग का कारण नहीं है, जिसमें किसी तरह की क्रिया नहीं है। गुण १७ हैंरूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा और प्रयत्न । इनके अलावा प्रशस्तपादभाष्य में छः और गुण बतलाए हैंगुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, अदृष्ट और शब्द । अदृष्ट में धर्म और अधर्म दोनों शामिल हैं। इस तरह कुल मिला कर २४ गुण हुए। इनमें से कुछ गुण मूर्त हैं अर्थात् मृत द्रव्य पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और मन में पाए जाते हैं । यहाँ मृर्त का अर्थ है अपकृष्ट अर्थात् परम महत् से छोटे परिमाण वाला होना । जैन दर्शन में प्रतिपादित रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का होना रूप मूर्तत्व यहाँ नहीं लिया जाता । मन में रूप रस आदि न होने पर भी छोटे परिमाण वाला होने से ही मूर्त है । कुछ गुण अमूर्त हैं जो आत्मा और आकाश में ही पाए जाते हैं । कुछ मूर्त और अमूर्त दोनों हैं अर्थात् मूर्त तथा अमूर्त दोनों