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श्री सेठिया जैन ग्रन्थ माला
सुखदुःखज्ञान मन से होते हैं। मन प्रत्येक शरीर में एक है और अणु के बराबर है । एक क्षण में एक ही पदार्थको जानता है ।
सातवाँ प्रमेय प्रवृत्ति है जो इन्द्रिय, मन या शरीर का व्यापार है। जिससे ज्ञान या क्रिया उत्पन्न होती है। आगामी नैयायिकों के मत से प्रवृत्ति दस तरह की है- शरीर की तीन प्रवृत्तियाँ (१) जीवों की रक्षा (२) सेवा और (३) दान । वाणी की चार प्रवृत्तियाँ (४) सच बोलना (५) प्रिय बोलना (६) हित बोलना और (७) वेद पढना । मन की तीन प्रवृत्तियाँ (८) दया (8) लोभ रोकना और (१०) श्रद्धा । ये दस पुण्य प्रवृत्तियाँ हैं । इन से विपरीत दस पाप प्रवृत्तियाँ हैं । प्रवृत्तियों से ही धर्म अधर्म होता है
आठवें प्रमेय दोष में राग, द्वेष और मोह सम्मिलित हैं । राग पाँच तरह का है- काम, मत्सर, स्पृहा, तृष्णा और लोभ । द्वेष भी पाँच तरह का है- क्रोध, ईर्ष्या अर्थात् दूसरे के लाभ पर डाह, असूया अर्थात् दूसरे के गुणों पर डाह, द्रोह और अमर्श अर्थात् जलन । मोह चार तरह का है- मिथ्या ज्ञान, संशय, मान और प्रमाद। - नवाँ प्रमेय पुनर्जन्म या प्रेत्यभाव है। दसवां प्रमेय फल अर्थात् कर्मफल और ग्यारहवाँ दुःख है । बारहवाँ प्रमेय मोक्ष या अपवर्ग है। राग द्वेष, व्यापार, प्रवृत्ति, कर्म आदि छूट जाने से, मन को आत्मा में लगाकर तत्त्वज्ञान प्राप्त करने से जन्म मरण की शृङ्खला टूट जाती है और मोक्ष हो जाता है।
तीसरा पदार्थ संशय है जो वस्तुओं या सिद्धान्तों के विषय में होता है । चौथा पदार्थ है प्रयोजन जो मन वचन या काया के व्यापार या प्रवृत्ति के सम्बन्ध में होता है । पाँचवाँ पदार्थ