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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
में अनित्य । ईश्वर का ज्ञान नित्य और सर्व व्यापी है, दूसरों में अज्ञान, अधर्म, प्रमाद इत्यादि दोष भी हैं।
शरीर चेष्टा, इन्द्रिय और अर्थ का आश्रय है । पृथ्वी के परमाणुओं से बना है । धर्म अधर्म या पाप पुण्य के अनुसार आत्मा तरह तरह के शरीर धारण करता है । इन्द्रियाँ पाँच हैं-- नाक कान आँख जीभ और त्वचा जो उत्तरोत्तर पृथ्वी
आकाश, तेज, जल, और वायु से बनी हैं और अपने उत्तरोत्तर गुण, गन्ध, शब्द, रूप, रस और स्पर्श का ग्रहण करती हैं । इन्द्रियों के इन्हीं विषयों को अर्थ कहते हैं, जिसको चौथा प्रमेय माना है। आगे के नैयायिकों ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष, समवाय और प्रभाव को अर्थ में गिना है। पृथ्वी का प्रधान गुण गन्ध है पर इसमें रूप, रस, स्पर्श, संख्या, परिमाण पृथकत्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व और संस्कार भी हैं। परमाणुओं में नित्य और स्थूल पदार्थों में अनित्य । इसी तरह जल, तेज, वायु और आकाश में अपने अपने प्रधान गुण क्रमशः मधुर रस, उष्णस्पर्श, अनुष्णाशीतस्पर्श और शब्द के सिवाय और गुण भी हैं । परमाणुओं में नित्य और अवयवी में अनित्य । आकाश के नित्य होने पर भी उसका गुण शब्द अनित्य है।
पाँचवाँ प्रमेय बुद्धि है जिसे ज्ञान भी कहते हैं । इससे वस्तुएँ जानी जाती हैं । यह परसंवेद्य है अर्थात् अपने को जानने के लिए इसे दूसरे ज्ञान की अपेक्षा होती है। यह अनित्य है किन्तु ईश्वर का ज्ञान नित्य माना गया है।
छठे प्रमेय मन को बहुत से नैयायिकों ने इन्द्रिय माना है। स्मरण, अनुमान, संशय, प्रतिभा, शाब्दज्ञान, स्वमज्ञान और