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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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में इनके विचार संक्षेप से दिए हैं। ये कहते हैं कि ईश्वर और कोई प्रमाण नहीं है । जैसे कुछ पदार्थों के मिलने से नशा पैदा हो जाता है वैसे ही चार तत्त्वों के मिलने से (a) पैदा हो जाता है। विचार की शक्ति जड से ही पैदा होती है, शरीर ही आत्मा है और अहं की धारणा करता है । इस बात पर जड़वादियों में चार भिन्न भिन्न मत थे । एक के अनुसार स्थूल शरीर आत्मा है, दूसरे के अनुसार इन्द्रियाँ आत्मा है, तीसरे के अनुसार श्वास आत्मा है और चौथे के अनुसार मस्तिष्क आत्मा है । पर ये सब मानते थे कि आत्मा जड़ पदार्थ से भिन्न कोई वस्तु नहीं है । यह संसार ही सब कुछ है। स्वर्ग, नरक, मोक्ष आदि निर्मूल कल्पना है। पाप पुण्य का विचार भी निराधार है। जब तक जीना है सुख से जीओ, ऋण ले कर घी पीओ पुनर्जन्म नहीं है। परलोक की आशा में इस लोक का मुख छोड़ना बुद्धिमत्ता नहीं है। वेदों की रचना, धूर्त, भाण्ड और निशाचरों ने की है । ब्राह्मण कहते हैं कि ज्योतिष्टोम में होम दिया हुआ पशु स्वर्ग में जाता है, तो यज्ञ करने वाला अपने पिता का होम क्यों नहीं कर देता ? सर्वदर्शनसंग्रह और सर्वसिद्धान्तसंग्रह के अनुसार लौकायतिकों ने पाप और पुण्य, अच्छाई और बुराई का भेद मिटा दिया और कोरे स्वार्थ तथा भोगविलास का उपदेश दिया । चार्वाक दर्शन प्रत्येक बात का साक्षात् प्रमाण चाहता है। उपमा या अनुमान, श्रुति या उपनिषद् पर भरोसा नहीं करता । ई० पू० ६-५ सदी में अजितने भी आत्मा के अस्तित्व से इन्कार किया और जड़वाद के आधार पर अपना पन्थ चलाया । इसी समय संजय ने एक और पन्थ चलाया जो आत्मा पुनर्जन्म आदि के