________________
nirmnnnnnnnwwwwv
१३२
श्री सेठिया जैन प्रन्थमाला विषय में कोई निश्चित राय नहीं रखता था।
जैन शास्त्रों में यह मत प्रक्रियावादी के नाम से प्रचलित है। कहा जाता है, बृहस्पति ने देवों के शत्रु असुरों को मोहित करने के लिए इस मत की सृष्टि की थी।
न्याय न्याय जिसे तर्क विद्या या वादविद्या भी कहते हैं ई० पू० तीसरी सदी के लगभग गौतम या अक्षपाद के न्यायसूत्रों में
और उसके बाद ५ वीं ई० सदी के लगभग वात्स्यायन की महाटीका न्यायभाष्य में, तत्पश्चात् ५ वीं सदी में दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय, न्यायप्रवेश इत्यादि में, छठी सदी में उद्योतकर के न्यायवार्तिक में और धर्मकीर्ति के न्यायविन्दु में 8वीं सदी में धर्मोत्तर की न्यायबिन्दु टीका में और उसके बाद बहुत से ग्रन्थों और टीकाओं में वादविवाद के साथ प्रतिपादन किया गया है । गौतम का पहला प्रतिज्ञासूत्र है कि प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान इन सोलह तत्त्वों के ठीक ठीक ज्ञान से मुक्ति होती है। तीसरा मूत्र कहता है कि प्रमाण चार तरह का है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द । जब पदार्थ से इन्द्रिय का सम्बन्ध होता है तब प्रत्यक्ष ज्ञान होता है । यह सम्बन्ध छः प्रकार का है(१) संयोगद्रव्य का प्रत्यक्ष इन्द्रिय और अर्थ के संयोग सम्बन्ध से होता है । (२) संयुक्त समवाय- द्रव्य में रहे हुए गुण, कर्म या सामान्य का प्रत्यक्ष संयुक्त समवाय से होता है क्योंकि चक्षु द्रव्य से संयुक्त होती है और गुणादि उसमें समवाय