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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह १२९ थे पर कुछ लोग ऐसे भी थे जो थोड़े दिनों के लिए ही भिक्षु होते थे । कोई कोई भिक्षु इन्द्रियदमन पूरा न कर सकते थे। __ बाद में जाकर दार्शनिक दृष्टि से बौद्धों के चार भेद हो गए। वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार और माध्यमिक । वैभाषिक- त्रिपटकों में बताए हुए सभी तत्वों को प्रमाण मानते हैं। प्रत्यक्ष और आगम दोनों प्रमाण स्वीकार करते हैं। सभी वस्तुओं को क्षणिक तथा आत्मसन्तानपरम्परा के छेद को मोक्ष मानते हैं, अर्थात् आत्मा के अस्तित्व का मिट जाना ही मोक्ष है। सभी सविकल्पक ज्ञान मिथ्या हैं। जिसमें किसी तरह की कल्पना न हो ऐसे अभ्रान्त ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं । सौत्रान्तिक- इनके मत से वस्तुओं का प्रामाण्यज्ञान अनुमान द्वारा ही हो सकता है। प्रत्यक्ष निर्विकल्प होने से निश्चय नहीं करा सकता इसलिए एक अनुमान ही प्रमाण है। बाकी सब वैभाषिकों की तरह ही है। योगाचार- यह संसार की सभी वस्तुओं को मिथ्या मानता है।
आत्मा का ज्ञान ही सत्य है । वह ज्ञान भी क्षणिक है। अद्वैतवेदान्ती इसे नित्य मानते हैं यही इन दोनों में भेद है। माध्यमिक- ये सभी वस्तुओं को शून्यरूप मानते हैं । शून्य न सत् है, न असत्, न सदसत् है, न अनिवेचनीय है । इन सभी विकल्पों से अलग एक शून्य तत्त्व है ।आत्मा या बाह्य पदार्थ सभी मिथ्या हैं, कल्पित हैं, भ्रम रूप हैं।
जैन दर्शन के गुणस्थानों की तरह बौद्धों में १० भूमियाँ 'मानी गई हैं। अन्तिम बोधिसत्व भूमि में पहुँच कर जीव बुद्ध अर्थात्. सर्वज्ञ हो जाता है।