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श्रो सेठिया जैन ग्रन्थमाला
जाते थे । कभी कभी इस उम्मेदवारी से सर्वथा मुक्ति भी दे दी जाती थी। बुद्ध ने कहा था कि उपाज्झाय और सद्धिविहारिक में पिता पुत्र का सा सम्बन्ध होना चाहिए। संघ में भरती सारी सभा की सम्मति से होती थी। कभी कभी भिक्खु लोग आपस में बहुत झगड़ते थे और दल बन्दी भी करते थे । संघ के सब भिक्खु पातिमोक्रव पाठ करने के लिए जमा होते थे। विद्वान् भिक्खु ही पाठ करा सकते थे। उपाज्झाय और सद्धिविहारिक के सम्बन्ध पर जो नियम संघ में प्रचलित थे उनसे नए सदस्यों की शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध हो जाता था । धीरे धीरे बौद्ध संघ इतना फैला कि देश में हजारों संघाराम बन गए। ये बौद्ध धर्म, शिक्षा और साहित्य के केन्द्र थे और मुख्यतः इन्हीं के प्रयत्नों से धर्म का इतना प्रचार हुआ।
बौद्धों ने और जैनों ने संन्यास की जोरदार लहर पैदा की पर कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्हें यह ढङ्ग पसन्द नथा।बौद्धधर्म की स्थापना के पहिले युवक गौतम को शुद्धोदन ने समझाया था कि बेटा! अभी त्याग का विचार न करो। उसके प्रस्थान पर सभी को बड़ा दुःख हुआ।यशोधरा हिचकी भर भर कर रोती थी, बेहोश होती थी और चिल्लाती थी कि पत्नी को छोड़ कर धर्म पालना चाहते हो यह भी कोई धर्म है ? वह कितना निर्दयी है, उसका हृदय कितना कठोर है जो अपने नन्हे से बच्चे को त्याग कर चला गया ? शुद्धोदन ने फिर सन्देशा भेजा कि अपने दुःखी परिवार का अनादर न करो, दया परम धर्म है, धर्म जङ्गल में ही नहीं होता, नगर में भी हो सकता है। पुरुषों को संन्यास से रोकने में कभी कभी स्त्रियाँ सफल भी हो जाती थीं। बौद्धों में कुछ लोग तो हमेशा के लिए संन्यासी हो जाते