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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
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प्रत्येक प्रस्ताव पर दो या चार बार विचार होता था। सब से पहिले ज्ञप्ति होती थी। जिसमें सदस्य अपना प्रस्ताव सुनाता था
और उसके कारण समझाता था। फिर प्रतिज्ञा होती थी जिस में पूछा जाता था कि यह प्रस्ताव संघ को पसन्द है या नहीं? महत्त्वपूणे मामलों में यह प्रश्न तीन बार पूछा जाता था। इन स्थितियों में प्रस्ताव पर चर्चा होती थी, पक्ष और विपक्ष में तर्क किया जाता था। जब वक्तृताएँ लम्बी हो जाती, अप्रासंगिक विषय छिड़ जाता या तीव्र मतभेद पुगट होता तो प्रस्ताव सदस्यों की एक छोटी समिति के सिपुर्द कर दिया जाता था। यदि समिति में भी समझौता न हो सके तो प्रस्ताव फिर संघ के सामने आता था। दूसरी बार भी संघ के एकमत न होने पर कम्मवाचा होती थी अर्थात् प्रस्ताव पर सम्मतियाँ ली जाती थीं। एक पुरुष सदस्यों को रंग रंग की लकड़ी की शलाकाएं बाँट देता था और समझा देता था कि प्रत्येक रंग का अर्थ क्या है? खुल्लम-खुल्ला या चुपके से, जैसा निश्चित हो, सम्मतियाँ डाली जाती थीं। भूयसिकस्स नियम के अनुसार जिस ओर अधिक सम्मतियाँ आती उसी पक्ष की जय होती थी अर्थात् वही माना जाता था । अनुपस्थित सदस्यों की सम्मति डालने का भी प्रबन्ध था । स्वीकृत होने पर प्रस्ताव कार्य या कर्म कहलाता था। एक बार निर्णय हो जाने पर प्रस्ताव पर फिर चर्चा न होनी चाहिए और न उसे रद्द करना चाहिए ऐसीराय गौतम बुद्ध ने दी थी पर कभी कभी इसका उल्लंघन हो जाता था। - बौद्ध संघ में यह नियम था कि नया भिक्खु अर्थात् सद्धिविहारिक दस बरस तक उपाज्झाय या आचारिक की सेवा में रहे । विद्वान् भिक्खुओं के लिए पाँच वर्षे काफी समझे