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श्रो सेठिया जैन ग्रन्थमाला
से कहा था- "आनन्द ! मेरे बाद अगर चाहे तो संघ छोटे नियमों में परिवर्तन कर ले ।" उसके बाद एक सभा में जब नियमों पर विचार हुआ तो इतना मतभेद प्रगट हुआ कि परिवर्तन करना उचित नहीं समझा गया। सभा ने निर्णय किया कि बुद्ध भगवान् जो कुछ कह गए हैं, वही ठीक है, न उनके किसी नियम में परिवर्तन करना चाहिये, न नया नियम बनाना चाहिए । यद्यपि बुद्ध के नियम संघ में सर्वत्र मान्य थे तो भी साधारण मामलों और झगड़ों का निपटारा प्रत्येक संघ प्रत्येक स्थान में अपने आप कर लेता था। संघ के भीतर सारी कार्यवाही, सब निर्णय जनसत्ता के सिद्धान्त के अनुसार होते थे । महावग्ग और चुल्लवग्ग में संघसभाओं की पद्धति के नियम दिए हुए हैं। यह धारणा है कि ये सारे नियम बुद्ध ने कहे थे पर सम्भव है कि कुछ उनके बाद जोड़े गए हों । ये नियम वर्तमान यूरोपियन प्रतिनिधिमूलक व्यवस्थापक सभाओं की याद दिलाते हैं। सम्भव है, इनमें से कुछ तत्कालीन राजकीय सभाओं से लिए गए हों। पर ऐतिहासिक साती के अभाव में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। नियम बहुत से थे। यहाँ केवल मुख्य नियमों का निर्देश काफी होगा । जब तक निश्चित संख्या में सदस्य न आजायँ तब तक सभा की कार्यवाही शुरू नहीं हो सकती थी । गणपूरक का कर्तव्य था कि निश्चित संख्या पूरी करे।सभा में आने पर आसनपञ्जापक (आसनप्रज्ञापक) सदस्यों को छोटे बड़े के लिहाज से उपयुक्त स्थानों पर बैठाता था। कभी कभी निश्चित संख्या पूरी होने के पहिले ही काम शुरू हो जाता था पर पीछे से इस काम की स्वीकृति लेनी होती थी। स्वयं गौतम बुद्ध की राय थी कि ऐसा कभी होना ही नहीं चाहिए।