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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
यहाँ अविरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि है । क्योंकि 'उत्तरफल्गुनी का I उदय' रूप हेतु 'पूर्वफल्गुनी का उदय' रूप साध्य का उत्तरचर है अर्थात् सदैव बाद में रहने वाला है ।
(६) अविरुद्ध सहचरोपलब्धि - इस आम में रूपविशेष है क्योंकि रसविशेष मालूम पड़ता है। रात में किसी व्यक्ति ने आम चखा । उस समय ग्राम के मीठेपन से उसके रंग का अनुमान करना अविरुद्ध सहचरोपलब्धि है, क्योंकि रस (हेतु) रूप (साध्य) का सहचर अर्थात् हमेशा साथ रहनेवाला है ।
ये छ: भेद साक्षात् अविरुद्धोपलब्धि के हैं। परम्परा से होने बाली विरुद्धोपलब्धियों का भी इन्हीं से ज्ञान कर लेना चाहिए। जैसे धूप से गीले ईन्धन का अनुमान करना कार्यकार्याविरुद्धोपलब्धि है । वहाँ घूँआ गीले ईन्धन रूप साध्य के है और उसका विरोधी नहीं है, इसलिये कार्यकार्याविरुद्धोपलब्धि रूप हेतु है । अथवा यहाँ कोश (घट बनने से पहिले की एक अवस्था ) था क्योंकि घट है । यहाँ घट रूप हेतु कोश रूप साध्य के कार्य कुशूल (कोश के बाद की अवस्था) का कार्य है । इत्यादि बहुत से उदाहरण दिए जा सकते हैं। विरुद्धोपलब्धि और विरुद्धानुपलब्धि रूप हेतु के भेद सातवें बोल में दिए जाएंगे
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(प्रमाणनयतत्वालोकालंकार तृतीय परिच्छेद)
४९६ - परदेशी राजा के छः प्रश्न
भरत क्षेत्र के साढ़े पच्चीस देशों में केकयि देश का आधा भाग गिना जाता है । उसमें सेयविया (श्वेताम्बिका) नाम की नगरी थी। नगरी से उत्तर-पूर्व मियवन (मृगवन ) नाम का उद्यान था। नगरी के राजा का नाम परदेशी था । वह बड़ा पापी था ।