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श्रो सेठिया जैन ग्रन्थमाला'
धार्मिक बातों पर उसे विश्वास न था। साधु साध्वियों से घृणा करता था। राजा के चित्त नाम का सारथि था । वह बड़ा चतुर था। राजा का प्रत्येक कार्य उसकी सलाह से होता था। उन्हीं दिनों कुणाल देश की श्रावस्ती नामक नगरी में जितशत्रु नाम का राजा राज्य करता था। एक दिन परदेशी ने चित्त सारथि को जितशत्रु के पास एक बहुमूल्य भेट देने के लिए तथा उसकी राज्य व्यवस्था देखने के लिए भेजा।
जिस समय चित्त सारथि श्रावस्ती में ठहरा हुआ था भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य श्री केशिश्रमण अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ वहाँ पधारे । चित्त सारथि व्याख्यान सुन कर उनका उपासक बन गया। उसने बारह वत अङ्गीकार कर लिए। ___ कुछ दिनों बाद चित्त सारथि ने श्वेताम्बिकालौटने का विचार किया । उसने जितशत्रु राजा से लौटने की अनुमति मांगी। जितशत्रु ने एक बहुमूल्य भेट परदेशी के लिए देकर चित्त सारथि को विदा दी। चित्त सारथि केशिश्रमण को वन्दना करने गया, उनसे सेयविया पधारने की विनति की और प्रस्थान कर दिया। ___ अनगार केशिश्रमण श्वेताम्बिका नगरी के मृगवन नामक उद्यान में आ पहुँचे । चित्त सारथि को यह जान कर बड़ी प्रसन्नता हुई । आनन्दित होता हुआ वह उद्यान में पहुँचा । वन्दना के बाद उसने निवेदन किया स्वामिन् ! हमारा राजा परदेशी बड़ा पापी है, अगर आप उसे धर्म का प्रतिलाभ करा देखें तो जगत का महान् कल्याण हो सकता है । केशिश्रमण ने उत्तर दिया राजा के हमारे पास बिना आए हम क्या कर सकते हैं ? चित्त सारथि ने किसी उपाय से राजा को वहाँ लाने का विचार किया।
एक दिन चित्त सारथि कुछ नए घोड़ों की चाल दिखाने