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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
भाव का अर्थ है उसके बिना न रहना। हेतु दो तरह का होता है उपलब्धि रूप और अनुपलब्धि रूप । जहाँ किसी की सत्ता से दूसरे की सत्ता का अभाव सिद्ध किया जाय उसे उपलब्धि रूप हेतु कहते हैं, जैसे ऊपर के दृष्टान्त में धूम की सत्ता से अग्नि की सत्ता सिद्ध की गई । अथवा यह पुरुष सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि रागादि वाला है । यहाँ रागादि की सत्ता से सर्वज्ञत्व का अभाव सिद्ध करना । इसी तरह अनुपलब्धि रूप हेतु से भी किसी वस्तु की सत्ता का अभाव सिद्ध किया जाता है।
उपलब्धि रूप हेतु के दो भेद हैं, अविरुद्धोपलब्धि और विरुद्धोपलब्धि।
साध्य से अविरुद्ध किसी बात से साध्य की सत्ता या अभाव सिद्ध करना अविरुद्धोपलब्धि है। विरुद्धोपलब्धि का स्वरूप और भेद सातवें बोल में बताए जायेंगे।
अविरुद्धोपलब्धि छः प्रकार की है(१) अविरुद्ध व्याप्योपलब्धि (४) अविरुद्ध पूर्वचरोपलब्धि (२) अविरुद्ध कार्योपलब्धि (५) अविरुद्ध उत्तरचरोपलब्धि (३) अविरुद्ध कारणोपलब्धि (६) अविरुद्ध सहचरोपलब्धि (१) अविरुद्ध व्याप्योपलब्धि- शब्द परिणामी है क्योंकि प्रयत्न के बाद उत्पन्न होता है । जो वस्तु प्रयत्न के पश्चात् उत्पन्न होती है वह परिणामी अर्थात् बदलने वाली होती है, जैसे स्तम्भ । जो बदलने वाली नहीं होती वह उत्पत्ति में प्रयत्न की अपेक्षा नहीं रखती, जैसे वन्ध्यापुत्र । शब्द प्रयत्न के पश्चात् उत्पन्न होता है, इसलिए परिणामी अर्थात् बदलने वाला है। यह अविरूद्ध व्याप्योपलब्धि है। क्योंकि प्रयत्न के पश्चात् उत्पन्न होना रूप हेतु परिणामित्व रूप साध्य का व्याप्य है और उससे विरुद्ध