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: श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
जाता है वह अतथाज्ञान प्रश्न है। .
(ठाणांग ६ सूत्र ५३४). ४९५ - अविरुद्धोपलब्धि रूप हेतु के छः भेद
जो वस्तु इन्द्रियों का विषय नहीं है अर्थात् जिस वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता उसे जानने के लिये अनुमान किया जाता है। जैसे पर्वत में छिपी हुई अग्नि का चक्षु द्वारा प्रत्यक्ष नहीं होने पर धुंआ देख कर अनुमान किया जाता है। अनुमान में साधन या हेतु से साध्य का ज्ञान किया जाता है। ऊपर वाले दृष्टान्त में अग्नि साध्य है और धूम हेतु । जिसे सिद्ध किया जाय उसे साध्य कहते हैं। इस में तीन बातें आवश्यक हैं। (१) साध्य पहिले से ही सिद्ध नहीं होना चाहिए, क्योंकि सिद्ध वस्तु का दुवारा सिद्ध करना व्यर्थ होता है । सिद्ध को भी अगर सिद्ध करने की आवश्यकता हो तो अनवस्था हो जायगी।दुबारा सिद्ध करने पर भी फिर सिद्धि की अपेक्षा होगी। (२) साध्य प्रत्यक्षादि प्रबल प्रमाण से बाधित नहीं होना चाहिये, क्योंकि प्रत्यक्ष से अनुमान की शक्ति कम है। जैसे अग्नि को शीतल सिद्ध करना । अग्नि का ठण्डापन प्रत्यक्ष से बाधित है इस लिए साध्य नहीं बनाया जा सकता। (३) साध्य वादी को इष्ट होना चाहिए। नहीं तो अपने मत के विरुद्ध होने से उसमें स्वमतविरोध हो जाता है। जैसे जैनियों की तरफ से यह सिद्ध किया जाना कि रात्रिभोजन में दोष नहीं है । या बौद्धों की तरफ से यह सिद्ध किया जाना कि वस्तु नित्य है।
जो वस्तु साध्य के बिना न रहे उसे हेतु कहते हैं।अर्थात् हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध होता है । अविना