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श्रो सेठिया जैन ग्रन्थमाला
उनकी गुरु के समक्ष वन्दना पूर्वक विनय भाव से आलोचना करनी चाहिये । इसलिये तीसरा आवश्यक वन्दना है । गुरु के
आगे भूल की आलोचना करने पर वापिस शुभ योगों में आने के लिये प्रयत्न करना चाहिये । इसलिये वन्दना के बाद प्रतिक्रमण कहा गया है । इतने पर भी दोषों की पूर्ण शुद्धि न हो तो कायोत्सर्ग का आश्रय लेना चाहिए जो कि प्रायश्चित्त का एक प्रकार है। कायोत्सर्ग करने के बाद भी पूर्ण रूप से दोषों की शुद्धि न हो तो उसके लिए तथा गुण धारण के लिए प्रत्याख्यान करना चाहिये । इस प्रकार आवश्यक के छहों भेद परस्पर सम्बद्ध एवं काय कारण भाव से व्यवस्थित है।
(हरिभद्रीय आवश्यक सूत्र) ४८०- प्रतिक्रमण के छः भेद ___ पापों से या व्रत प्रत्याख्यान में लगे हुए दोषों से निवृत्त होना प्रतिक्रमण कहलाता है। प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त केदस भेदों में दूसरा और आवश्यक के भेदों में चौथा है। अथवा प्रमादवश पाप का आचरण कर लेने पर उस के लिए 'मिच्छामि दुक्कड़े देना अर्थात् उस पाप को अकरणीय समझ कर दुबारा जानते हुए कभी न करनेका निश्चय करना और सदा सावधान रहनाप्रतिक्रमण है। इसके छः भेद हैं(१) उच्चार प्रतिक्रमण- उपयोग पूर्वक बड़ी नीत को त्याग कर ईर्या का प्रतिक्रमण करना उच्चार प्रतिक्रमण है। (२) प्रश्रवण प्रतिक्रमण- उपयोग पूर्वक लघुनीत कोपरठ कर ईयो का प्रतिक्रमण करना प्रश्रवण प्रतिक्रमण है। (३) इत्वर प्रतिक्रमण- स्वल्पकालीन जैसे दैवसिक, रायसिक, आदि प्रतिक्रमण करना इत्वर प्रतिक्रमण है।