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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
है । कायोत्सर्ग स्थित आत्मा उपयोग में लीन हो जाता है जिस से बुद्धि की जड़ता भी हटती है। कायोत्सर्ग से अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव से रहने की शक्ति प्रगट होती है । भावना एवं ध्यान का अभ्यास भी कायोत्सर्ग से पुष्ट होता है । कायोत्सर्ग में चित्त एकाग्र रहता है इससे अतिचार अर्थात् दोषों का चिन्तन भली प्रकार होता है और चारित्र की शुद्धि होती है । इस प्रकार कायोत्सर्ग विविध हितों को साधने वाली महत्त्व पूर्ण क्रिया है ।
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( ६ ) प्रत्याख्यान - द्रव्य और भाव से आत्मा के लिए अनिष्टकारी अतएव त्यागने योग्य अन्न वस्त्रादि तथा अज्ञान कषायादि का मन वचन और काया से यथा शक्ति त्याग करना प्रत्याख्यान है ।
अन्नादि वस्तुओं का त्याग भी तभी वास्तविक प्रत्याख्यान है जब वह राग द्वेष और कषायों को मन्द करने तथा ज्ञानादि गुणों की प्राप्ति के लिए किया जाय। इसलिए 'गुणधारण' शब्द प्रत्याख्यान का पर्यायवाची है ।
प्रत्याख्यान करने से संयम होता है और संयम से आश्रव का निरोध अर्थात् संवर होता है। संवर से तृष्णा का नाश और तृष्णा के नाश से अनुपम उपशम भाव (मध्यस्थ परिणाम) होता है । उपशम भाव से प्रत्याख्यान शुद्ध होता है। इसके बाद चारित्र धर्म प्रगट होता है । चारित्र धर्म से कर्मों की निर्जरा
कर्मों की निर्जरासे पूर्वकरण होता है। अपूर्वकरण से केवलज्ञान और केवलज्ञान से शाश्वत सुखमय मां का लाभ होता है ।
पहला आवश्यक सामायिक चारित्र रूप है। अरिहन्त के गुणों की स्तुति रूप दूसरा चतुर्विंशतिस्तव दर्शन और ज्ञान रूप है । ज्ञान दर्शन और चारित्र इन तीनों के सेवन में भूल होने पर