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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला देवसिक, रायसिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक के भेद से इसके पाँच भेद भी हैं। __ मिथ्यात्व,अविरति, कपाय और अप्रशस्त योग रूप चार दोष प्रतिक्रमण के विषय हैं। इनका प्रतिक्रमण करना चाहिये । इन्हें छोड़कर सम्यक्त्व, विरति, क्षमा आदि गुण एवं प्रशस्त योग
रूप गुणों को प्राप्त करना चाहिये । ____सामान्य रूप से प्रतिक्रमण दो प्रकार का है- द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण । मुमुक्षुओं के लिए भाव प्रतिक्रमण ही उपादेय है। उपयोग रहित सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिक्रमण है। इसी प्रकार लब्धि आदि के निमित्त से किया जाने वाला सम्यग्दृष्टि का प्रतिक्रमण भी द्रव्य प्रतिक्रमण ही है। दोषों का एक बार प्रतिक्रमण करके बारबार उनका सेवन करते रहना
और उनकी शुद्धि के लिये बारबार प्रतिक्रमण करते जाना भी यथार्थ प्रतिक्रमण नहीं है ।कर्मों की निर्जरा रूप वास्तविक फल भाव प्रतिक्रमण से ही होता है । द्रव्य प्रतिक्रमण द्वारा भाव प्रतिक्रमण की ओर अग्रसर होना चाहिये। किसी दोष का प्रतिक्रमण करके उसे बार बार सेवन करने वाला कुम्हार के बरतनों को कंकर द्वारा बार बार फोड़ कर माफी मांगने वाले क्षुल्लक साधु सरीखा है । लगे हुए दोषों को दूर करना और भविष्य में उन दोषों का फिर सेवन न करने के लिए सावधान रहना ही प्रतिक्रमण का असली उद्देश्य है। ऐसा करने से आत्मा धीरे धीरे सकल दोषों से मुक्त होकर शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाता है। (५) कायोत्सर्ग- धर्मध्यान और शुक्लध्यान के लिए एकाग्र होकर शरीर की ममता का त्याग करना कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग से श्लेष्मादि का क्षय होता है और देह की जड़ता दूर होती