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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
(४) यावत्कथिक प्रतिक्रमण-महावत भक्तपरिज्ञादि द्वारा सदा के लिये पाप से निवृत्ति करना यावत्कथिक प्रतिक्रमण है । यहाँ प्रतिक्रमण से पाप निवृत्ति रूप अर्थ इष्ट है। (५) यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण- संयम में सावधान साधु से प्रमादवश असंयम रूप यदि कोई विपरीत आचरण हो जाय तो वह मिथ्या (असम्यक) है । इस प्रकार अपनी भूल को स्वीकार करते हुए 'मिच्छामि दुक्कड' देना यत्किंचिन्मिथ्या प्रतिक्रमण है। (६) स्वमान्तिक- सोकर उठने पर किया जाने वाला प्रतिक्रमण स्वमान्तिक प्रतिक्रमण है। अथवा स्वप्न देखने पर उसका प्रतिक्रमण करना स्वमान्तिक प्रतिक्रमण है।
(ठागा गि ६ सुत्र ५३८) ४८१- प्रत्याख्यान विशुद्धि ___ विशुद्धि का अर्थ है संशोधन। छः तरह की विशुद्धियों से युक्त
पाला हुआप्रत्याख्यान शुद्ध और दोष रहित होता है। वे विशुद्धियाँ इस प्रकार हैं(१) श्रद्धानविशुद्धि- साधु के पाँच मूल गुणों का दस उत्तर गणों का और श्रावक के बारह वतों का प्रत्याख्यान चतर्याम या पाँच याम वाले जिस तीर्थकर के शासन में जैसा कहा है और उस का सुभिक्ष, दुर्भिक्ष,प्रातःकाल, मध्याह्नकाल तथा सायंकाल अदि के लिए जैसा विधान किया गया है उसको वैसा ही समझ कर श्रद्धान करना श्रद्धानविशुद्धि है। (२) ज्ञानविशुद्धि-जिनकल्प, स्थविरकल्प, मूल गुण, उत्तर गुण तथा प्रातः काल आदि में जिस समय जिस प्रत्याख्यान का जैसा स्वरूप होता है उसको ठीक ठीक वैसाजानना ज्ञानविशुद्धि है।