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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
वज्रमध्य, चन्द्र प्रतिमादि सभी प्रकीर्ण तप हैं। ( उत्तराध्ययन अध्ययन ३० गाथा-१०-११)(भगवती श०२५ उ०७) ४७८-आभ्यन्तर तप छः
जिस तप का सम्बन्ध आत्मा के भावों से हो उसे आभ्य- . न्तर तप कहते हैं । इसके छः भेद हैं(१) प्रायश्चित्त- जिससे मूल गुण और उत्तरगुण विषयक अतिचारों से मलिन आत्मा शुद्ध हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। अथवा प्रायः का अर्थ पाप और चित्त का अर्थ है शुद्धि । जिस अनुष्ठान से पाप की शुद्धि हो उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। (२) विनय- आठ प्रकार के कर्मों को अलग करने में हेतु रूप क्रिया विशेष को विनय कहते हैं। अथवा सम्माननीय गुरुजनों के आने पर खड़ा होना, हाथ जोड़ना, उन्हें आसन देना, उनकी सेवा शुश्रूषा करना आदि विनय कहलाता है । (३) वैयावृत्त्य- धर्म साधन के लिए गुरु, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित आदि को विधिपूर्वक आहारादि लाकर देना और उन्हें संयम में यथाशक्ति सहायता देना वैयावृत्त्य कहलाता है। (४) स्वाध्याय-अस्वाध्याय टाल कर मर्यादापूर्वक शास्त्रों का अध्ययन अध्यापन आदि करना स्वाध्याय है। स्वाध्याय के पाँच भेद हैं- वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुपेक्षा और धर्मकथा। (५) ध्यान- आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान करनाध्यान तप कहलाता है।
ध्यान का विशेष विस्तार प्रथम भाग के चौथे बोल संग्रह के बोल नं० २१५ में दे दिया गया है। (६) व्युत्सर्ग- ममता का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है। यह