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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
द्रव्य और भाव से दो प्रकार का है । गण, शरीर, उपधि और आहार का त्याग करना द्रव्य व्युत्सर्ग है। कषाय संसार और कर्म का त्याग करना भाव व्युत्सर्ग है। __ आभ्यन्तर तप मोक्ष प्राप्ति में अन्तरङ्ग कारण है । अन्तर्दृष्टि आत्मा ही इसका सेवन करता है और वही इन्हें तप रूप से जानता है । इनका असर बाह्य शरीर पर नहीं पड़ता किन्तु आभ्यन्तर राग द्वेष कषाय आदि पर पड़ता है। लोग इसे देख नहीं सकते। इन्हीं कारणों से उपरोक्त छः प्रकार की क्रियाएँ आभ्यन्तर तप कही जाती हैं।
(उववाई सूत्र १९) (उत्तराध्ययन अध्ययन ३०)
(प्रवचनसारोद्धार गाथा २७०.७२) (ठाणांग ६ सूत्र ११) ४७९- आवश्यक के छः भेद
सम्यग ज्ञान दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए आत्मा द्वारा अवश्य करने योग्य क्रिया को आवश्यक कहते हैं। आवश्यक के छः भेद हैं(१) सामायिक- राग द्वेष के वश न हो कर समभाव (मध्यस्थ 'भाव) में रहना अर्थात् किसी प्राणी को दुःख न पहुँचाते हुए सब के साथ आत्मतुल्य व्यवहार करना एवं आत्मा में ज्ञान दर्शन चारित्र आदि गुणों की वृद्धि करना सामायिक है।
सामायिक के उपकरण सादे और निर्विकार होने चाहिये। सामायिक करने का स्थान शान्तिपूर्ण अर्थात् चित्त को चञ्चल बनाने वाले कारणों से रहित होना चाहिये।
सामायिक से सावध व्यापारों का निरोध होता है । आत्मा शुद्ध संवर मार्ग में अग्रसर होता है। कर्मों की निर्जरा होती है।