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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
अविशुद्ध भाव लेश्या है और अंतिम तीन अर्थात् चौथी,पाँचवीं और छठी विशुद्ध भाव लेश्या हैं छहों का स्वरूप क्रमशः नीचे दिया जाता है। (१) कृष्ण लेश्या-काजल के समान काले वर्ण के कृष्ण लेश्या-द्रव्य के सम्बन्ध से आत्मा में ऐसा परिणाम होता है कि जिससे आत्मा पाँच आश्रवों में प्रवृत्ति करने वाला,तीन गुप्ति से अगुप्त, छः काया की विरति से रहित,तीव्र प्रारम्भ की प्रवृत्ति सहित, क्षुद्र स्वभाव वाला, गुण दोष का विचार किये बिना ही कार्य करने वाला, ऐहिक और पारलौकिक बुरे परिणामों से न डरने वाला अतएव कठोर और क्रूर परिणामधारी तथा अजितेन्द्रिय हो जाता है। यही परिणाम कृष्ण लेश्या है। (२) नील लेश्या- अशोक वृक्ष के समान नीले रंग के नील लेश्या के पुद्गलों का संयोग होने पर आत्मा में ऐसा परिणाम उत्पन्न होता है कि जिससे आत्मा ईषा और अमर्षे वाला, तप
और सम्यग्ज्ञान से शून्य, माया, निर्लज्जता, गृद्धि, प्रद्वेष,शठता, रसलोलुपता आदि दोषों का आश्रय, साता का गवेषक, आरंभ से अनिवृत्त, तुच्छ और साहसिक हो जाता है । यही परिणाम नील लेश्या है। (३) कापोत लेश्या- कबूतर के समान रक्त कृष्ण वर्ण वाले द्रव्य कापोत लेश्या के पुद्गलों के संयोग से आत्मा में इस प्रकार का परिणाम उत्पन्न होता है कि वह विचारने,बोलने और कार्य करने में वक्र बन जाता है, अपने दोषों को ढकता है और सर्वत्र दोषों का आश्रय लेता है। वह नास्तिक बन जाता है और अनार्य की तरह प्रवृत्ति करता है । द्वेषपूर्ण तथा अत्यन्त कठोर वचन बोलता है। चोरी करने लगता है । दूसरे की उन्नति को