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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
के १७ वें पद में है। पन्नवणा सूत्र में यह भी बताया गया है कि कृष्ण लेश्यादि के द्रव्य जब नील लेश्यादि के साथ मिलते हैं तब वे नील लेश्यादि के स्वभाव तथा वर्णादि में परिणत हो जाते हैं,जैसे दूध में छाछ डालने से वह छाछ रूप में परिणत हो जाता है, एवं वस्त्र को मजीठ में भिगोने से वह मजीठ के वर्ण का हो जाता है। किन्तु लेश्या का यह परिणाम केवल मनुष्य और तिर्यञ्च की लेश्या के सम्बन्ध में ही है। देवता और नारकी में द्रव्य लेश्या अवस्थित होती है इसलिए वहाँ अन्य लेश्या द्रव्यों का सम्बन्ध होने पर भी अवस्थित लेश्या सम्बध्यमान लेश्या के रूप में परिणत नहीं होती। वे अपने स्वरूप को रखती हुई सम्बध्यमान लेश्या द्रव्यों का छाया मात्र धारण करती हैं, जैसे वैडूर्य मणि में लाल धागा पिरोने पर वह अपने नील वर्ण को रखते हुए धागे की लाल छाया को धारण करती है। ___ भावलेश्या- योगान्तर्गत कृष्णादि द्रव्य यानि द्रव्यलेश्या के संयोग से होने वाला आत्मा का परिणाम विशेष भावलेश्या है । इसके दो भेद हैं- विशुद्ध भावलेश्या और अविशुद्ध भाव लेश्या।
विशुद्ध भावलेश्या- अकलुष द्रव्यलेश्या के सम्बन्ध होने पर कषाय के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होनेवाला आत्मा का शुभ परिणाम विशुद्ध भावलेश्या है।
अविशुद्ध भावलेश्या- कलुषित द्रव्य लेश्या के सम्बन्ध होने पर राग द्वेष विषयक आत्मा के अशुभ परिणाम अविशुद्ध भाव लेश्या हैं। ___ यही विशुद्ध एवं अविशुद्ध भावलेश्या कृष्ण, नील,कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल के भेद से छः प्रकार की हैं। आदिम तीन