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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह
द्रव्य लेश्या पुद्गल रूप है। इसके विषय में तीन मत हैं(क) कर्म वर्गरणा निष्पन्न । (ख) कर्म निष्यन्द | (ग) योग परिणाम |
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पहले मत का आशय है कि द्रव्य लेश्या कर्मवर्गणा से बनी हुई है और कर्म रूप होते हुए भी कार्माण शरीर के समान आठ कर्मों से भिन्न है ।
दूसरे मत का आशय है कि द्रव्य लेश्या कर्म निष्यन्द अर्थात् कर्म प्रवाह रूप है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म होने पर भी उन का प्रवाह (नवीन कर्मों का आना) न होने से वहाँ लेश्या के भाव की संगति हो जाती है ।
तीसरे मत का आशय है कि जब तक योग रहता है तब तक लेश्या रहती है। योग के अभाव में लेश्या भी नहीं होती, जैसे चौदहवें गुणस्थान में । इसलिए लेश्या योग परिणाम रूप है । इस मत के अनुसार लेश्या योगान्तर्गत द्रव्य रूप है अर्थात् मन वचन और काया के अन्तर्गत शुभाशुभ परिणाम के कारण भूत कृष्णादि वर्ण वाले पुद्गल ही द्रव्य लेश्या हैं। आत्मा में रही हुई कषायों को लेश्या बढ़ाती है । योगान्तर्गत पुद्गलों में कषाय ढ़ाने की शक्ति रहती है, जैसे पित्त के प्रकोप से क्रोध की वृद्धि होती हैं ।
योगान्तर्गत पुद्गलों के वर्णों की अपेक्षा द्रव्य लेश्या छः प्रकार की है - ( १ ) कृष्ण लेश्या, (२) नील लेश्या (३) कापोत लेश्या, (४) तेजोलेश्या, (५) पद्म लेश्या, ( ६ ) शुक्ल लेश्या । इन छहों लेश्याओं के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि का सविस्तार वर्णन उत्तराध्ययन के ३४ वें अध्ययन और पन्नवणा