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द्वितीय परिच्छेट: जैनकुमारसम्भवकार की जीवन वृत्त, कृतियों तथा अमाग
जैन काव्य साहित्य की तत्कालीन परिस्थितियों एवं प्रेरणाएं
वर्ग का प्रमुख हाँथ रहा है।
(घ) साहित्यिक अवस्था
आलोच्य युग के पूर्व गुप्तकाल संस्कृत साहित्य का स्वर्णयुग कहा जाता है। उस समय तक वाल्मीकिरामायण, महाभारत, अश्वघोष के काव्य वुद्धचरित एवं सौन्दरनन्द तथा कालिदास के रघुवंश, कुमारसम्भव आदि एवं प्राकृत के गाथासप्तशती एवं सेतुबंध आदि लिखे जा चुके थे और एक विशिष्ट काव्यात्मक शैली का प्रादुर्भाव हो चुका था तथा संस्कृत प्राकृत एवं अपभ्रंश में उत्तरोत्तर उच्चकोटि की रचनाएं होने लगी थी। तब तक ब्राह्मणों के मुख्य पुराण भी अन्तिम रूप धारण कर रहे थे। इस युग में काव्यों को शास्त्रीय पद्धति पर बाँधने के लिए भामह, दण्डि, रुद्रट प्रभृति विद्वानों के काव्यालङ्कार, काव्यादर्श आदि ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। रीतिवद्ध शैली के इस युग में अनेक काव्यों की सृष्टि होने लगी थी जिनमें भारवि कृत किरातार्जुनीय, माघकृत शिशुपालवध, श्रीहर्षकृत नैषधीय-चरित वृहत्त्रयी के नाम से विख्यात है। शास्त्रीय पद्धति पर काव्य की अनेक विधाओं जैसे गद्य-काव्य, चम्पू, दूतकाव्य, अनेकार्थकाव्य, नाटक आदि की सृष्टि इस युग में हुई।
जैन विद्वानों ने भी इस युग की मांग को देखा। उनका धर्म-वैसे तो त्याग और वैराग्य पर प्रधान रूप से बल देता है। उनके शुष्क उपदेशों को बिना प्रभावोत्पादक ललित शैली के कौन सुनने को तैयार था?